Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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अनुकृत; सचेलता के आने पर बने व्रात्य-सम्प्रदाय में गणधर ग्रथित आगम के आचार, सूत्र, आदि ग्यारह अंगों के बचे-खुचे रूप को देवर्धिगणी ने वीर निर्वाण की दशवीं शती में स्मृति रूप से लिपिबद्ध कराया था। अतः शास्त्र रूप में सुरक्षित व्रात्य श्रमण विद्या का यह विशाल लिखित रूप, संभव है कि ऋग्वेदकी हस्तलिखित प्रति की अपेक्षा, पूर्व नहीं तो सम-या किंचिदुत्तरकालीन सिद्ध हो। किन्तु इसकी भाषा (प्राकृत), संस्कृति तथा अध्यात्म स्पष्ट संकेत करते हैं कि इन्द्र ( उग्र ), सोम, अश्व तथा वाणों के कारण आव्रजकोंने अहिंसक, संयमी, संपन्न, रथयायी तथा गदा-खड्ग धारी दासों या व्रात्यों पर विजय पाने के बाद उनके समान ग्राम-पल्ली निवास, कृषि तथा संयम को अपनाया था। यज्ञविधि सूक्त 'ब्राह्मणों' के बाद वनवासी शिश्नदेवों को देखकर 'अरण्यक' विधि अपनायी । तथा उनके निकट समागम ( उप-निषत् ) में आने पर जन्मान्तर मय दर्शन या अध्यात्म का विकास किया था । इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान का यह सुफल था कि पातञ्जलि काल तक शाश्वत विरोधी कहे जाने वाले श्रमण (व्रात्य ) ब्राह्मणों ( वैदिकों) में एक शाश्वत समन्वय हो गया था। जिसे लगभग तीन हजार वर्ष बाद हुए वेदके संस्कृत टीकाकार सोच भी नहीं सकते थे । और चमत्कार युग को चकाचौंध के कारण 'शिश्न एव देवः' तथा 'वैदिक-वृत्ताद्वाह्यः व्रात्येदि' करने को विवश हुए होंगे। श्रमण-जागरण
उक्त वेदपूर्व श्रमण-विद्या के आधार पर उत्तर कालमें लिखित चूणियों, वृत्तियों तथा भाष्यों का स्वाध्याय करने के कारण भारतीय श्रमण (दिगम्बरों) समाजने भी भारत के सांस्कृतिकजागरण ( रीनेसां ) के लिए लगभग एक शती पहिले ( वी०नि० २४२० ) कदम बढ़ाया था। तथा संघधर्म होने के कारण 'संघे शक्तिः कलौयुगे' को चरितार्थ करते हुए ‘महासभा' का सूत्रपात किया था। यह एक ऐसा मंच था जो अपनी पुण्य तथा पितृभूमि में बौद्धिक ( अपेक्षावाद ) तथा शारीरिक ( अहिंसा ) सह-अस्तित्व की उस धारा को प्रवाहित रखना था, जो आव्रजकों के पूर्ववर्ती व्रात्यों के युगमें जनतंत्र, जनभाषा तथा जनकल्याण के रूपमें प्रचलित था। किन्तु मुस्लिम-विजय के साथ आयो धार्मिक असहिष्णुता का कतिपय श्रमणों में प्रवेश हो चुका था। वे भी धार्मिक विधि-विधान को अपेक्षा अपनी मान्यता को ही आगमपंथ मानने लगे थे । फलतः २८ वर्ष वाद वे लोग इस संघटनसे अलग होने को विवश हुए जो श्रमण-विद्याके मूल आधार, क्षेत्र, काल- द्रव्य ( व्यक्ति ) और भाव ( वैचारिकता) की अपेक्षा पुरातन को समझते और पालन करते थे। इस दूसरे श्रमण संघटन ने श्रमण-परिषद् रूपसे अपना कार्य करते हुए समाज के आधुनिकीकरण को लक्ष्य बनाया था। किन्तु आर्यसमाज ने सनातन वैदिक समाज की रूढियों आदि पर आधात के साथ साथ मूर्तिपूजा, आदि पर भी प्रहार करके आद्य मूर्तिपूजकों (श्रमणों) को भी घेर लिया था । तथा आस्तिक नास्तिक की संकुचित परिभाषा ( नास्तिको वेद निन्दकः) पर मुग्ध हो कर श्रमण समाज पर भी आक्षेप करने प्रारम्भ कर दिये थे। परिषदके उत्साही सदस्य सामाजिक-सधारों में व्यस्त रहने के कारण आक्षेप-समाधान की स्थितिमें नहीं थे । तथा स्वयंभू श्रमणविद्या-निष्णात गुरु गोपालदास जी के अस्त के बाद इनके शिष्य धीमान् भी मूलज्ञ होनेके कारण आधुनिक विधिका शास्त्रार्थ (डिवेट) से संकुचाते थे। और इनके अनुयायी श्रीमान् तो अपनी संस्कृति की उच्चता दर्शाने के लिए कर ही क्या सकते थे। संघोवय
प्रथम विश्वयुद्धके बादके दशकों ने विश्वके साथ भारत तथा श्रमण-समाजमें ऐसे विचारकों तथा स्वाध्यायियों को दिया था जो सभा संवटनों को चकाचौंध से बचते हुए वीतराग रूपसे