Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २०७-२०८ ] असंकामगो होदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एसो च पुच्छाणिद्द सो आणुपुव्वीसंकमादिविसेसमुवेक्खदे । एदस्स च विसेसणिण्णयं पुरदो कस्सामो । एवमेदीए मूलगाहाए पुच्छाभेत्तेण णिहिट्ठाणमत्थविसेसाणं विहासणे कीरमाणे तत्थ इमाओ पंच भासगाहाओ होंति त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरमाह
* एदिस्से पंच भासगाहाम्रो । ६३२ सुगमं । * तासिं समुक्कित्तणा ।
६३३ सगमं । संपहिं तासि पंचण्ड भासगाहाणं जहाकममेव समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो तत्थ ताव पढमभासगाहाए समुक्कित्तणं कुणइ, 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' इति न्यायात् । * (१५५) दससु च वस्सस्संतो बंधदि णियमा दु सेसगे अंसे ।
देसावरणीयाई जेसिं प्रोवणा अस्थि ॥२०८॥
भेदको प्रप्त हुए कर्म-प्रदेशोंको संक्रमाता है । साथ ही 'केसुवा' किन कर्मोंके कितने भागका असंक्रामक होता है ? इस प्रकार यह इस मूल सूत्र गाथाका अर्थके साथ सम्बन्ध है और यह मूल सूत्र गाथामें की गई पृच्छाका निर्देश आनुपूर्वी संक्रम आदि विशेषकी अपेक्षा करता है और इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। इस प्रकार इस मुलगाथाके द्वारा पृच्छामात्रसे निर्दिष्ट किये गये अर्थ-विशेषोंकी विभाषा करने पर उस विषयमें ये पाँच भाष्यगाथायें हैं, इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्र को कहते हैं
* इस मूलगाथा सूत्रकी पाँच भाष्य-गाथायें हैं । $ ३२ यह सूत्र सुगम है। * उनकी समुत्कीर्तना करते हैं । • ६ ३३ यह सूत्र सुगम है।
अब उन पाँच भाष्य-गाथाओंकी यथाक्रम ही समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए वहाँ सर्वप्रथम प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं, क्योंकि उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है ऐसा न्याय है।
___ * क्रोधसंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके वेदकके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मके बिना शेष तीन कर्मोंकी अर्थात तीन घातिकर्मोंकी नियमसे दस वर्षके भीतर अर्थात अन्तर्मुहूर्त कम दस वर्ष प्रमाण स्थितिका बन्ध करता है तथा इन कर्मों में जिनकी अपवर्तना सम्भव है उनका देशघातिरूपसे बन्ध करता है [तथा जिन कर्मोंकी अपवर्तना सम्भव नहीं है उनका सर्वघातिरूपसे बन्ध करता है । ॥२०८॥ १.व संकामगो प्रे० का० ।