Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २१२]
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$ ७९ एदेसिं सुत्ताणमत्थो वुच्चदे । तं जहा -लद्धिकम्मंसाणमेदेसु नियमा देसघादि - सव्वघादिवसे देस - सव्वघादि - उदयसंभवे तत्थ सव्वघादिमणुभागमेदेसि वेदे - मामा अनंतगुणहीणं वेदेदि, सव्वधादिअणुभागस्स अनंतगुण- विसोहिवसेण तहापरिणामसिद्धीए णिव्वाहमुवलंमादो । देसघादिसरूवो पण एदेसिमणुभागोदयो अंतरंगकारणवइचित्तियेण छवड्ढि - हाणि-अवट्ठिदसरूवेण पयहृदि, तत्थ पयारंतरासंभवादोति ।
$ ८० एवमेदाहिं पंचहिं भासगाहाहिं मूलगाहाए पुरिमद्धो विहासिदो । 'संकादि के के केस असंकामगो होदि' त्ति एदेण गाहापच्छद्ध ेण किट्टीविसओ आणुgodiकमो णिोि । सो च पुव्वमेव विहासिदो त्तिण पुणो एत्थ विहासिदो । अथवा देण पदेण खविदकम्माणि अक्खविदकम्माणि च भणियूण गेण्हियव्वाणि । एवमेत्तिएण परंघेण दसममूलगाहाए अत्थविहासणं समानिय संपहि पयादमत्थमुवसंहरेमाणो इदमाह ।
* एवमेसा दससी मूलगाहा किट्टीसु विहासिदा समत्ता । * एस्तो एक्कारसमी मूलगाहा ।
$ ७९ अब इन सूत्रोंका अर्थं कहतें हैं । यथा - लब्धिरूप ( क्षयोपशमरूप) कमौका, उक्त ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप कर्मोंमें नियमसे देशघाति और सर्वघातिरूप होने के कारण, देशघाति और सर्वघातिरूप पुंज का उदय सम्भव होनेपर वहाँ इन कर्मोंके सर्वघाति अनुभागका वेदन करता हुआ यह जीव नियमसे अनन्तगुणहीन अनुभागका वेदन करता है, क्योंकि सर्वघाति अनुभागकी अनन्तगुणी विशुद्धि के कारण उस प्रकारके परिणामकी सिद्धि निर्वाधरूप से उपलब्ध होती है । परन्तु इन कर्मोंका देशघातिरूप अनुभागका उदय अन्तरंगकारणोंकी विचित्रतावश छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित रूप से प्रवृत्त होता है, क्योंकि उन कर्मोंके विषय में अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
- ९ ८० इस प्रकार इन पांच भाष्यगाथाओं द्वारा मूल सूत्रगाथाके पूर्वार्धको विशेष व्याख्या की । अब 'संकामेदि य के के केसु असंकामगो होदि' इस प्रकार इस मूलगाथा सूत्रके पश्चिमा द्वारा कृष्टिविषयक आनुपूर्वी संक्रमका निर्देश किया गया है । किन्तु उसका पहले ही विशेष व्याख्यान कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसका पुनः विशेष व्याख्यान नहीं करते हैं । अथवा इस पद द्वारा क्षपित कर्मोंको और अक्षपित कर्मोंको कहकर ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दसवीं मूलगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए यह सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार यह दसवीं मूलगाथा कृष्टियोंके विषय में विशेष व्याख्यान होकर समाप्त हुई ।
* इससे आगे ग्यारहवीं मूलगाथा है ।