Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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ज्ञानाराधना करते थे। ऐसे लोगों में पं० मंगलसेन वेद-विशारद, अर्हादस, लाला शिब्बामलजी, आदिने पं० राजेन्द्रकुमार जी को अपना सुख बनाया। और इन शार्दूल-पंडित ने भी अपने दादागुरु गोपालदास को याद करके आर्यसमाजियों को चकित कर दिया । तथा सिद्ध किया कि पत्थरकी मूर्ति ही मूर्ति नहीं है। अपितु वेदमंत्रों के अक्षर भी वैदिक ज्ञान-ध्वनि की मूर्तियां हैं। इस प्रथम विजयके बाद केकड़ी, संभल, पानोपत, खतौली, ग्वालियर, मेरठ, झांसी, ज्वालापुर, आदि दर्जनों स्थानों पर सफल शास्त्रार्थों की लड़ी लग गयो । और गुणग्राही समाजने इनको भरपूर सहयोग दिया। अनायास ही १९३१ में 'भा० दि० जैन शास्त्रार्थ 'संघ' श्रमण संस्कृति के संरक्षक रूपमें सामने आया । प्रतिभा तथा साहसके धनी शार्दूलपंडितजी ने ७ वर्ष तक शास्त्रार्थ का मोर्चा अपने अग्रज साथियों के साथ एकाकी सम्हाला । और आर्यसमाजी अभियान के दण्डनायक ने ही कर्मानन्द रूप में श्रमण-धर्म स्वीकार कर लिया। तथा शास्त्रार्थ की चुनौतियों को आर्य समाजियों ने भी वीतकाल मानकर राष्ट्रीय महासभा (क्रांग्रेस ) के पूर्वरूप में आकर 'सर्व धर्मे समानत्वं' को अपना लिया था।
स्व० शार्दूल पंडितजीने भी श्रमण समाज के स्थितिपालकों तथा सुधारकों का सहयोग प्राप्त होते ही उपदेशक-विद्यालय, साहित्य प्रकाशन, उपसर्ग निवारण, तीर्थ संरक्षण ( बिजोलिया केस खेखड़ाकांड तथा सिद्धान्तों की रक्षा पूर्वक रुचि समन्वयी दष्टिके लिए पत्रिका-पत्र प्रकाशन पर जोर दिया। इसके लिए उन्होंने अपने गुरुओं को सम्मान दिलाया, साथियों को उनकी क्षमता के अनुरूप त्रिविध सहयोग देकर समाज में प्रतिष्ठित किया तथा अनुजों को खोज-खोज कर देशधर्म की सेवा का व्रती बना दिया । भा० दि० जने संघ श्रवण-समाज की कनिष्ट भा० संस्था होने पर भी देखते-देखते प्रधान कार्यालय (संघभवन, चौरासी-मथुरा ), ( मुखपत्र, जैनदर्शन, जैनसन्देश यदि समस्त विद्वान अदम्य शास्त्रार्थी संस्थापक प्रधानमंत्री जी के 'विरोध-परिहार' का अनुकरण करते हुए 'जैनदर्शन' के द्वारा आगमके नामपर चली आयी प्रवाह-पतित धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं की शुद्ध आगमिक व्याख्या करके प्रवचन तथा प्रचार का आदर्श उपस्थित करते थे, तो 'जैनसन्देश' भी सिद्धान्ताचार्य के सम्पादकीयों के कारण समाजका यथार्थ एवं निर्भीक मार्गदर्शक साप्ताहिक बन गया था । और अनजाने ही संघके युवक विद्वानों (स०/श्री लालबहादुर शास्त्री, बलभद्र न्या०, ती आदि ) को व्यापक स्तर का सम्पादक बना सका था। अनजाने ही 'सन्देश' ने पाश्चात्य ढंगके उदारशिक्षित व्यक्तियों को 'शंकासमाधान, पत्राचार द्वारा धर्मशिक्षण' आदि स्तम्भों में ला कर जहां अन्य पत्रों को दिशा दो थी, वहीं इन स्वयंबुद्ध स्वाध्यायियों ( स्व० रतनचन्द्र मुख्तार, श्री नेमिचन्द वकील, आदि ) को ससम्मान सामियों का सेवा-व्रती बनाया था। इस 'गुणिषुप्रमोदं" का चरम विकास; आजोवन स्वान्तः सुखाय श्रमण-इतिहास एवं संस्कृति के साधक डा० ज्योतिप्रसाद द्वारा सम्पादित 'शोधांक' था। जो बौद्धिक जगत को भी मान्य था और दशकों अजैन शोधकों को जैन विषयोंकी शोध में लगा सका था), तथा दर्जनों तत्त्वोपदेशकों और भजनोपदेशकों की जीवित एवं कर्मठ संस्था बन गया था तथा समस्त अधिकारियों, कार्यकर्ताओं और कर्मचारियों ने 'भारत-सेवक-समाज' के समान नाममात्र का 'योगक्षेम' लेकर आजीवन सेवा व्रत लिया था । यह संघके संस्थापक प्रधान मंत्रीजी का ही व्यक्तित्व था जिसने पंचकल्याणक रथोत्सव करके सामाजिक उपाधि (श्रीमन्तसेठ) लेने के लिए तत्पर श्रीमान् को सिद्धान्त ग्रन्थप्रकाशन की ओर मोड़ दिया था। तथा उनके गुरु स्व०५० देवकीनंदनजी तथा प्रशंसक डा० हीरालाल तथा जज जमनालाल कलरैया ने इस योजना को सोत्साह कार्यरूप दिलाया था । तथा धीमानों में स्व० पं० हीरालाल ( साढ़मल ) ने इस पुण्य प्रकाशन का ओंकार किया था।