Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा मिज्जदि, ण तत्तो परमिद्वि एदस्स कारणं वच्चदे । तं जहा-लोभस्य विदियसंगहकिट्टीदो तदियबादरसांपराइयकिट्ठीए उबरि जं पदेसग्गं संकामिज्जदि तं तम्हि चेव संकमणावलियमेत्तकालमविचलसरूवं होदण चिट्ठदि । पुणो संकमणाओग्गं होदण एगावलियमेत्तकालेण तं सव्वं चिराणसंतकम्मेण सह सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकामिज्जदे । एवं संकामिदे पुणो उच्छिट्ठावलियमेत्ता पढमट्ठिदी परिसेसा होदण चिट्ठदि । तेण कारणेण अप्पणो पढमद्विदीए जाव तिण्णि आवलियाओ सेमाओ अस्थि ताव लोभम्स विदियकिट्टीपदेसग्गं तदियबादरसांपराइयकिट्टीए उवरि संकामिज्जदि। तत्तो परं तत्थ ण संछुहदि, सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु चेव संछुब्भदि । तदवत्थाए तदियवादरसांपराइयकिट्टीए संकेतदव्वस्स सुहुमकिट्टीसरूवेण णिरवसेसं परिणामेदं संभवाभावादो।
दूसरी संग्रह कृष्टिमेंसे तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टिमें जो प्रदेशपुंज संक्रमित होता है वह उसीमें ही संक्रमणावलिप्रमाण काल तक चलायमान न होकर अवस्थित रहता है। पुनः संक्रमणके योग्य होकर एक आवलिप्रमाण कालके द्वारा वह सब प्राचीन सत्कर्मके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित होता है । इस प्रकार संक्रमित होने पर पुनः उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रथम स्थिति शेष. रहती है। इस कारणसे अपनी प्रथम स्थितिकी जब तक तीन आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब तक लोभसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिका प्रदेशपुंज तीसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिमें संक्रमित होता है। उसके पश्चात् उसमें संक्रमित नहीं होता, पूरा द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित होता है, क्योंकि उस अवस्थामें तीसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिके संक्रमित हुए द्रव्यका सूक्ष्मकृष्टिरूपसे पूरी तरहसे परिणमाना सम्भव नहीं है ।
विशेषार्थ-प्रकृतमें सक्षमसाम्परायिकविषयक कथन किया जा रहा है। ऐसी अवस्थामें यहाँ अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायिकसम्बन्धी उक्त कथन किसलिये किया गया है यह एक प्रश्न है, इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है, कि लोभ संज्वलनकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जब तक उसकी प्रथम स्थितिमें तीन आवलोप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब तक तो लोभसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज तीसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता रहता है। परन्तु दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिमें तीन आवलीप्रमाण स्थिति शेष रहने के बाद उसका प्रदेशपुंज लोभ संज्वलनको तोसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित न होकर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संकमित होने लगता है । इस प्रकार इस अर्थविशेषको सूचित करनेके लिये प्रकृतमें यह अनिवृत्तिकरणको अन्तिम सन्धि विषयक प्ररूपणा की है । यहाँ प्रकृत अर्थकी पुष्टिमें कारणका निर्देश करते हुए यह बतलाया गया है कि लोभसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका जो प्रदेशपुंज तीसरी बादरसांपरायिक कृष्टिमें संक्रमित होता है वह संक्रमणावलि काल तक तदवस्थ ही रहता है। उसके बाद एक आवलिप्रमाण कालके द्वारा वह पूरा द्रव्य पुराने सत्कर्मके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित हो जाता है । इस प्रकार संक्रमित होनेके बाद प्रथम स्थितिमें जो तीसरी आवलि बचती है वह उच्छिष्टावलि है । यही कारण है कि यहाँ प्रसंगसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायिककी चर्चा आ गई है। शेष कथन सुगम है।