Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 21
________________ अंतर सम्बन्धी आयुसे कम बोस सागरोपम आयुको स्थिति वाले आनतप्राणत कल्पोंके देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रमसे मनुष्यायुसे कम माईस और चोबोस सागरोपमको स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूत कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तिम समयमें गिध्यावको प्राप्त हुआ। (१४-१+२२+३१+२०+२२+२४-२४६६ सागरोपम) यह ऊपर बताया गया उत्पत्तिका क्रम अव्युत्पन्न जनोंके समझानेके लिए कहा है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकारसे छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है। ५. एक समय अन्तर निकालना नानाजीवापेक्षया[दो जीवोंको आदि करके पत्यके असंख्यातवें भाग मात्र विकल्पसे उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थानमें रहकर सम मिथ्यास्वको प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समयके लिए सासादन सम्यग्दष्टियोका अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समयमें कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जोव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थानका (नानाजोवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यगमिथ्यावृष्टि जीव अपने कालके क्षयसे सम्यक्त्वको अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिध्यादृष्टि जीवोंका एक समयके लिए अभाव हो गया। पुनः बन भतर समयमै हो मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यगमिथ्यात्वको प्राप्त हुए। इस प्रकारसे सम्यगमिथ्यात्वका एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया] (विशेष दे.-.५/१,६,४/७/६)। ६. पल्य/ असं. अन्तर निकालना नानाजीवापेक्षया[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तर एक समयवव ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँपर एक समयके स्थानपर उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है ] (विशेष दे. ध.१/१,1,4/01८)। ७. अनन्त काल अन्तर निकालना एक जीवापेक्षयाध.६/४.१,६६/३०५/२ होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरि खाणं, सेसतिगदीट्टिदोए आणं तियाभावादो। ण, अप्पिदपदजीव सेसतिगदीम हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्वेस पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपवेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणतंतरुवल भादो। प्रश्न-यह अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्योंका भले ही हो, किन्तु वह सामान्य तिर्यचोंका नहीं हो सकता, क्योंकि, शेष तीन गतियोंका काल अनन्त नहीं है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित पद (कृति सचित आदि ) वाले जीवको शेष सोन गतियों में घुमाकर तथा अविवक्षित पदसे तिर्यचोंमें प्रवेश कराकर वहाँ अनन्तकाल तक रहने के बाद निकलकर अर्पित पदसे तिपंचों में उत्पन्न होनेपर अनन्तकाल अन्तर पाया जाता है। ४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएं १.नरक व देवगतिमें उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा १. नरक गति-- पं.सं.प्रा.१/२०६ पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विणि उमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतर होइ पृढवीणं ॥ २०६।-रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंमें नारकियोंकी उत्पत्तिका अन्तरकाल क्रमशः मुहर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास चार मास, छह मास और एक पर्ष होता है। ह.प्र.४/३७०-३०१ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिटिकाः प्रथमक्षितौ अन्तर। ४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ नरकोत्पत्तेरन्तरः स्फुटीकृतम् ॥३७०॥ सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो मासौ यथाक्रमम् । चत्वारोऽपि च षण्मासा विरह षट्षु भूमिषु ॥३७१॥ -अन्तरके जाननेवाले आचार्योंने प्रथम पृथिवीमें नारकियोकी उत्पत्तिका अन्तर ४८ घड़ी बतलाया है । ७०॥ और नीचेकी६ भूमियों में क्रमसे १ सप्ताह, १ पक्ष, १ मास, २ मास,४ मास और ६ मासका विरह अर्थात अन्तरकाल कहा है ॥ ३७१ ॥ नोट-(यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओंमें कुछ अन्तर है जो ऊपरसे विदित होता है। २. देवगतित्रि.सा./५२१-५३० दुसुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणं तरं तु चवणे य । सत्तदिणपक्रवमासं दुगचदुछम्मासगं होदि ॥ ५२६॥ वरविरह छम्मासं इंदमहादेविलीयवालाणं । चउतेत्तीससुराण तणुरक्खसमाण परिसाणं ।।५३०॥ दोय दोय तीन चतुष्क शेष इन विर्षे जननान्तर अर च्यवनै कहिये मरण विषै अन्तर सो सात दिन, पक्ष, मास, दो, चार, छह मास प्रमाण हैं । (अर्थात सामान्य देवोंके जन्म व मरणका अन्तर उत्कृष्टपने सौधर्मादिक विमानवासी देवों में क्रमसे दो स्वर्गों में सात दिन, आगेके दो स्वर्गों में एक पक्ष, आगे चार स्वर्गों में एक मास, आगे चार स्वर्गों में दो मास, आगे चार स्वर्गों में चार मास, अवशेष वेयकादि विष छ मास जानना)। ५२६ । उत्कृष्टपने मरण भए पीछे सिसकी जगह अन्य जीव आय यावत न अवतरै तिस कालका प्रमाण सो सर्व हो इन्द्र और इन्द्रको महादेवी, अर लोकपाल, इनका तो विरह छ मास जानना। बहुरि त्रायस्त्रिंश देव अर अगरक्षक अर सामानिक अर पारिषद इनका च्यार मास विरह काल जानना ॥३०॥ २. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ संकेत अर्थ संकेत अन्तर्मू. अन्तर्मुहूर्त (जधन्य बा. बादर कोष्ठकमें जघन्य व भुजगार भुजगार अल्पतर उत्कृष्ट कोठकमें उत्कृष्ट अवस्थित अवक्तव्य अन्तर्मुहूर्त)। बन्ध उदय आदि। अपर्याप्त मा. मास असं. असंख्यात मिथ्या. मिथ्यात्व आ. आवली मनु. मनुष्य उपशम ल. अप. लब्धि अपर्याप्त एके.या ए. एकेंद्रिय वन, वनस्पति औ. औदारिक विकले. विकलेन्द्र २८/ज, २८प्रकृतियों की सत्ता वैक्रियक वाला मिथ्याष्टि वृद्धि बन्ध उदयादिमें षट्जीव। स्थान पतित वृद्धि ज-उ. उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य हानि। व अजघन्य बन्ध वृद्धिआ.पद जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि उदयादि। हानिव अवस्थान पद। ति. तियंच सम्य. सम्यक्त्व दि. दिन संख्यात नसक सा. सागर व सामान्य नि. निगोद सूक्ष्म पर्याप्त सासादनवत पंचेन्द्रिय सा. क्व पु. परि. पुद्गल परिवर्तन स्थान जैसे २४ प्रकृति बन्ध परि. परिवर्तन स्थान, २८ प्रकृति पू. को, पूर्वकोटी अन्धका स्थान आदि। पं. पृथक्त्व क्षपक अर्थ उप. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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