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२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
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१. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम ध.५/१.६.१०४/६/२ जोए मनाए बाणामि मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्त्रा । जोए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेत्र गुगट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अंतराविय अंतररूपणा काढल्या इदि एसो सुत्ताभिय्याओ। जिस मार्गणा महूत स्थान होते हैं. उस मार्ग को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानोंसे अन्तर कराकर अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु जिस मार्गमानें एक ही गुणस्थान होता है, वहाँपर अन्य मार्गमा अन्तर करा करके अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँपर यह सूत्रका अभिप्राय है।
२. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम
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घ. २/१.६.९३३/२०१६ मेगजीनमाज अतराभावो ण ताय ओगं तरगमणेनंतरं सभवदि, मग्गणाए विणासापत्तोदो | ण च अण्णगुणगमणेण अंतर सभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो । = प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव कैसे कहा ? उत्तर- सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन द्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेपर विवक्षित मार्गणा विनाशको आपत्ति आती है और न अन्य गुणस्थानमें जाने से भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थानको गये हुए जीव अन्य योगको प्राप्त हुए बिना पुनः आगमनका अभाव है । ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ध.५/१,६३७५ / २७० / २ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुत्रसमसम्मत्तेसमढी समारूहणे संभवाभावादो । -उपशम श्रेणोसे नोचे उतरे हुए जीवके वेदसम्मको प्राप्त हुए बिना पहले वाले उपशम सम्यक्त्वके द्वारा पुनः उपशम श्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है।
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४. सासादन सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम
घ. ७/२.३.१२९ / २३३/११ उपसमसेडोदो ओदिग्ण उवसमसम्माहडी दोभारमेको ग सास पनिरिति उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दोबार सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता ।
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५. सम्यग्मिध्यादृष्टिमें अन्तर सम्बन्धी नियम ध,५/१,६,३६/३१/२ जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिष्यतं परिज्जदि सो सम्मत्तेपे फिफिददि अह मिच्छादिट्ठी होवूण बाधिय जो सम्मामिविदि सो मिचमेव पिफिददि को जीन सम्यन्दष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिको प्राप्त होता है, वह सम्वरण के साथ ही उस गति से निकलता है । अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आएको बाँधकर सभ्य मिध्यात्वको प्राप्त होता है, वह मिध्याल के साथ ही निकलता है ।
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६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनमें अन्तर सम्बन्धी नियम ब. ख ७ / २.३ / सू. १३९ / २३३. जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । ध.७/२.१.१३६/२३३/३ कुरो पडमसम्मत पेतून अंतीमुतमच्चिय
सासणगुणं गंतूनहि करिय मिच्छत्तं गंतॄणं तरिय सव्वजहणेण पलिदो मस्स असंखेनविभाग मे बेल का सम्मत्त सम्मामिता पटमसम्म सामसागरोब म पृधत्तमेतट्ठिदिसंसकम्मे ठाय तिणि विकरणाणि काऊण पुणो पढमसम्मतं घेत्तूण छावलियावसेसा उवसम सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमे संतरुन भावो एव समसेडीयो बीयरिय सासम गंतु अंतोमुहुत्ते पुणो वि उत्रसमसेडिं पडिय ओदरिण शासण
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२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी नियम
गदरस सोहन्तमेतमंतर उवलम्भ एवमेव किरण परुनिद [च] [उनसमसेडीवो ओदिवसमसम्माहरिणो साराणं (म) गतिति नियम अस्थि, 'आसा पिज्ज' इदि कसायपाहुडे नित्तणाो एर परिहारो उच्च समी ओदिग्ण उबसमसम्माही दोषारमेणो ण शासण पहियदि ि सहि भने सास पडिवज्जिय उवसम सेडिमारुति की दि विण सासणं पडिवज्जदि प्ति अहिप्पओ एदस्स सुन्तरस । तेणतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णं तर गोवलब्भदे ।
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घ. ५/९.६०/१०/२ उपसमसम्म पि अंतोते व पडि वज्जदे । ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छतं गंतूर्ण सम्मत्त सम्माभिच्चाणि उब्बेतमा सिमेसोकोडाकोडी मेहदि पादिय सागरोवमादो सागरोत्तामा जाव हेटठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगणसं भवता दी तो पाय सागरोवमादी सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किष्ण करेदि । ण पलिदोअसंखेज्जदिभाषायामे अंतीमुत्तक्कीरणका हि उवेलखंड एहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पतिदोवस्त असंखेज्म विभाग मेचका लेण विणा सागरोवमस्स वा सागरो मधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तदो ।
वमस्स
घ. १०/४,२,४.६५/२८८/९ एम वेदगसम्मत चैव एसो पडिवज्जदि उबसमसम्मका पोरस असंखेज्जदि भागस्स एस्थाणुलं भादो । - सासादन सम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्य से पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है ॥ १३६ ॥ | क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तरको प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना कालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्वके योग्य सागरोपम पृथक्त्वमात्र स्थिति सत्वको स्थापित कर तीनों ही करणोंकी करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व - को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त हुए जीवके पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । (ध. ५/१,६,५-७/७-११) (ध. ५/१,६, ३७६ / १७०/१) प्रश्न-उपशम श्रेणीसे उतरकर सासादनको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादनको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया उत्तर- उपशमश्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनको प्राप्त नहीं होता । क. पा. की अपेक्षा ऐसा सम्भव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं करता। प्रश्न- वही जीव उपाम सम्यको भी अन्तर्मुहूर्त कासके पश्चात ही क्यों नहीं प्राप्त होता है ! उत्तर नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृतिकी उहेलना करता हुआ उनको अन्ताफोड़ाको ही प्रमाण स्थितिको घात करके सागरोपमसे अथवा सागरोपम पृथक नीचे नहीं करता तबतक उपशम सम्यक्त्वका ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है । प्रश्न- सम्यक्पकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको स्थितियोको अन्तर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपमसे, अथवा सागरोपम पृथक्त्व कालसे नीचे क्यों नहीं करता ? उत्तर- नहीं, क्योंकि पत्योपमके असंख्यात भागमात्र आयाम द्वारा अन्तर्मुहुर्त उनकीरण कासवा उसमा काण्डकों से पास की जानेवाली सम्यक और सम्यमिध्यास्म प्रकृतिको स्थितिका, पोषके असंख्यातवें भाग मात्र कालके बिना सागरोपमये अथवा सागरोपमपृथक्त्वके नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी है. सम्यग्दर्शन IV / २ / ६) यहाँ यह पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अन्त समय मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवाने उत्पन्न होनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त पश्चाद यदि सम्यक्त्वको प्राप्त करता भी हैं तो )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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