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अंतर
१. अंतर निवेश
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द्विशेष-"बाजिवारणलोहान काष्ठपाषाणवाससाम् । नारीपुरुषतीयामामन्तरं महदन्तरम् ॥"[गरुडपु. ११०/१५ इति महान विशेष इत्यर्थः। कचिद् बहियोगे 'ग्रामस्यान्तरे कूपाः' इति । क्वचिदुपसंव्याने-अन्तरे शाटका इति । क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयत इत्यर्थः । -अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं। १. यथा 'सान्तर काष्ठं में छिद्र अर्थ है। २. कहीं पर अन्य अर्थ के रूपमें वर्तता है। ३. 'हिमवत्सागरान्तरे में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। ४. 'शुक्लरक्ताधन्तरस्थस्य स्फटिकस्य-सफेद और लाल रंगके समीप रखा हुआ स्फटिक । यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है । ५. कहींपर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे-घोड़ा, हाथी और लोहेमें, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जल में अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है। यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्टयवाचक है। ६. ग्रामस्यान्तर कूपाः'मैं माह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात गाँव के बाहर कुओं है। ७. कहीं उपसंव्यान अर्थात अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्दका प्रयोग होता है यथा 'अन्तरे शाटकाः'। ८. कहीं विरह अर्थ में जैसे 'अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते'-अनिष्ट व्यक्तियोंके विरहमें मण्त्रणा करता है। रा.वा. १८1८/४२/१४ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशाव कस्यचिद पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुननिमित्तान्तरात तस्यैवाविर्भावदर्शनात तदन्तरमित्युच्यते । -किसी समर्थ द्रव्यको किसी निमित्तसे अमुक पर्यायका अभाव होनेपर निमित्तान्तरसे जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तबतकके कालको अन्तर कहते हैं। गो. जी./जी. प्र. १४३/३५७ लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मागंणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे मार्गणास्थानान्तरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावात् काल अन्तरं नाम । =नाना जीवनिको अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थानमें प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान को यावत काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अन्तर है। २. अन्तरके भेद-. ५/१,६,१/पृ/प.
अन्तर
१. अन्तर निर्देश
१. अन्तर प्ररूपणा सामान्यका लक्षण २. अन्तरके भेद ३. निक्षेप रूप अन्तरके लक्षण
४. स्थानान्तरका लक्षण २. अन्तर प्ररूपणासम्बन्धी कुछ नियम
१. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम २. योग मार्गणामें अन्तर सम्बन्धी नियम ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ४. सासादन सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ५. सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें अन्तर सम्बन्धी नियम
६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनमें अन्तर सम्बन्धी नियम ४ ३. सारणीमें दिया गया अन्तर काल निकालना
१. गणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अन्तर निकालना २. गति परिवतन-द्वारा अन्तर निकालना ३. निरन्तर काल निकालना ४.२४६६ सागर अन्तर निकालना ५. एक समय अन्तर निकालना ६. पल्य असं. अन्तर निकालना * काल व अन्तरमे अन्तर
दे. काल/६ ७. अनन्तकाल अन्तर निकालना ४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ-- १. नरक व देवगतिमें उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा ६ २. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंको सूची ३. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा ४. आदेश प्ररूपणा ५. कर्मोके बन्ध, उदय, सत्त्व विषयक अन्तर प्ररूपणा २३ ६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ २५
* काल व अन्तरानुयोगद्वारमें अन्तर दे.काल/५ १. अन्तर निर्देश
१. अन्तर प्ररूपणा सामान्यका लक्षणस.सि./१८/२६ अन्तरं विरहकालः । -विरह कालको अन्तर कहते हैं। ( अर्थात जितने काल तक अवस्था विशेषसे जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस कालको अन्तर कहते हैं ।) (ध. १/१,१,८/१०३/१५६ ) ( गो. जी./जो.प्र./५५३/६८२) रा. वा. १/८/७/४२/५ अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्तः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् । ७ । [अन्तरशब्दः ] बहुवर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सान्तर काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति । क्वचिदन्यत्वे 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' [वैशे. सू. १/१/१०] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति। क्वचित्सामीप्ये 'स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य तद्वता' इति 'शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते । क्वचि
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(नाम स्थापना
द्रव्य
काल
भाव)
सद्भाव
असद्भाव । २/३
आगम
मो आगम
आगम
नो आगम
ज्ञायक
भव्य
तद्वयतिरिक्त
भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र
३. निक्षेप रूप अन्तरके लक्षण-दे. निक्षेप। ध.५/१.६.१/१ ३/४ खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्यवदिरित्तखेत्तकालाणमभावा:-क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तरमें प्रविष्ट हो जाते हैं. क्योंकि छः द्रव्योंसे व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है। ४. स्थानान्तरका लक्षण घ. १२/४ २,७,२०१/११४/ हेट्ठिमट्ठाणमुवरिमट्ठाणम्हि सोहियरूबूणे कदे जं लद्धतं ठाणं तरं णाम। - उपरिम स्थानोंमें अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करनेपर जो प्राप्त हो वह स्थानोंकाअन्तर कहा जाता है।
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