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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
( क्षु० जिनेन्द्र वर्णो )
व्यापिनीं सर्वलोकेषु सर्वतत्त्वप्रकाशिनीम् । अनेकान्तनयोपेतां पक्षपातविनाशिनीम् ॥ १ ॥ अज्ञानतमसंहर्त्री मोह-शोकनिवारिणीम् । देह्यद्वैतप्रभां मह्यं विमलाभां सरस्वति ! ॥ २ ॥
[ अं ]
अंक १. (घ.५/प्र.२७) Number | २. सौधर्म स्वर्ग का १७ पटल इन्द्रक - दे, स्वर्ग ५/३ । ३, रुचक पर्व तस्थ एक कूट- दे. लोक ५/१३ । ४. मानुषोत्तर व कुण्डल पर्वतस्थ कूट- दे. लोक ५ / १०,१२ । अंकगणना (ध. ५/प्र./२७ ) Numeration j अंकगणित - (ध. ५/प्र./२७) Arithematic | अंकप्रभ— कुण्डलपर्व तस्थ कूट -- दे. लोक ५/१२ । अंकमय हृदस्थ एक कूट---दे, लोक ५/७ । अंकमुख - (ति. प. ४/२५३३ ) कम चौड़ा ।
अंकलेश्वर - (घ. १/प्र.३२ / H, L.) गुजरात देशस्थ भड़ौच जिलेका एक वर्तमान नगर |
अंकावतो पूर्व विदेहस्थ रम्या क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे, लोक ५/२ । अंकुशित — कायोत्सर्गका एक अतिचार – दे, व्युष्सर्ग १ । अंग - १. (म. पु. प्र. ४६ / पं. पन्नालाल ) मगध देशका पूर्व भाग ।
प्रधान नगर चम्पा ( भागलपुर ) है । २. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश - दे. मनुष्य / ४ । ३. ( प. पु. /१०/१२ ) सुग्रीवका बड़ा पुत्र । ४. (ध. ५/प्र.२७) Element | ५. प. घ. /उ. / ४७८ लक्षणं च गुणश्चाङ्ग शब्दाश्चैकार्थवाचकाः । - लक्षण, गुण और अंग ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।
★ अनुमानके पाँच अंग दे, अनुमान / ३१
* जल्प के चार अंग दे. जम्प १
★ सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रके अंग- दे. वह वह नाम । ★ शरीरके अंग — दे. अंगोपांग |
अंगज्ञान -- १. श्रुतज्ञानका एक विकल्प दे श्रुतज्ञान III । २. अष्टांग निमित्तज्ञान - दे. निमित्त / २ । अंगद - ( प. पु. १०/१२ ) सुग्रीवका द्वितीय पुत्र । अंगपण्णत्ति भट्टारक शुभचन्द्र (ई. १५१६- ९५५६ ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ- दे. शुभचन्द्र नं. ५
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अंगार - १. आहार सम्बन्धी एक दोष- दे. आहार II / ४/४ । २. वसति सम्बन्धी एक दोष- दे. वसति । अंगारक - भरत क्षेत्रका एक देश - दे. मनुष्य ४ ।
अंगारिणी – एक विद्या- दे. विद्या ।
अंगावर्त - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अंगुल — क्षेत्र प्रमाणका एक भेद - दे. गणित 1/१/३ | अंगुलीचालन — कायोत्सर्गका एक अतिचार - दे. व्युत्सर्ग / १ । अंगोपांग स. सि. ८/११/३८६ यदुदपादङ्गोपाङ्ग विवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम । -जिसके उदयसे अंगोपांगका भेद होता है वह अंगोपांग नाम कर्म है ।
घ. ६/१.६-१,२८/५४/२ जस्स कम्मरखंधस्मृदरण सरीरस्सं गोवंगणिफत्ती हो तस्स कम्मad धस्स सरीरअंगोवंगणाम । जिस कर्म स्कन्धके उदयसे शरीर के अंग और उपांगोंकी निष्पत्ति होती है, उस कर्म स्कन्धका शरीरांगोपांग यह नाम है । ( ध १३ / ५.५,१०१/३६४/४ ) ( गो जी./जी./प्र. ३३ / २६/५ )
२. अंगोपांग नामकर्मके भेद
ष. खं. ६/१,६-१/ सू. ३५/७२ जं सरीर अंगोवंगणामकम्मं तं तिविहं ओरालियर अंगोवं गणामं वेउव्वियसरीर अंगोवंगणाम, आहारसरीर अंगोवं गणामं चेदि ॥ ३५ ॥ - अंगोपांग नामकर्म तीन प्रकारका है - औदारिकशरीर अंगोपांग नामकर्म, वैक्रियक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारकशरीर अंगोपांग नामकर्म । (ष. ख. १३/५०५/ सू. १०६ / ३६६ ) (पं.सं. प्रा. २/४/४७ ) ( स. सि. ८ / ११ / ३८६ ) ( रा. वा. ८ / ११ / ४ / ५७६ / १६ ) ( गो . क./जी. प्र. २७/२२ ); ( गो . क./जी. प्र. ३३ / २६ )
* अंगोपांग प्रकृतिकी बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि दे. वह वह नाम ३. शरीर के अंगोपांगोंके नाम निर्देश
पं. सं. / प्रा./१/१६ जलयात्राहू य तहा णियंगपुट्ठी उरो य सीसं च । अव दु अंगाई देहण्णाई उबंगाई ॥ १० ॥ - शरीरमें दो हाथ, दो वैर, नितम्ब ( कमर के पीछेका भाग), पीठ, हृदय, और मस्तक ये आठ अंग होते हैं। इनके सिवाय अन्य ( नाक, कान, आँख
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