Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ अंगोपांग अंतर आदि ) उपांग होते हैं। (ध, ६।१,६-१,२८/गा. १०/५४ ) (गो. जी.मू. २८) ध,४१,९-१.२८/५४/शिरसि तावदुपाङ्गानि मूर्द्ध-करोटि-मस्तक-ललाटशल-भ्र कर्ण-नासिका-नयनाक्षिकूट-हनु-कपोल-उत्तराधरोष्ठ-सूक्त्रणीतालु-जिहादीनि । -शिरमें मूर्धा, कपाल, मस्तक, ललाट, शंख, भौंह, कान, नाक, आँख, अक्षिकूट, हनु (ठुड्डो ), कपोल, ऊपर और नीचेके ओष्ठ, मृक्वणी (चाप), तालु और जीभ आदि उपांग होते हैं। * एकेन्द्रियोंमें अंगोपांग नहीं होते व तत्सम्बन्धी शंका-दे, उदय । * हीनाधिक अंगोपांगवाला व्यक्ति प्रवज्याके अयोग्य है-दे. प्रवज्या। अंजन-१. सानत्कुमार स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग १/३। २. पूर्व विदेहस्थ एक वक्षार, उसका कूट व रक्षक देव-दे. लोक ५/३ । ३. पूर्व विदेहस्थ वैश्रवण वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे. लोक ५/४। ४. रुवक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/ ११३ । ५. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ॥१०॥ अंजनगिरि- नन्दीश्वर द्वोपकी पूर्वाहि दिशाओं में ढोलके आकारके ( Cylindrical ) चार पर्वत हैं। इनपर चार चैत्यालय हैं । काले रंगके होने के कारण इनका नाम अंजनगिरि है-दे. लोक ४/५।२. रुचक पर्वतस्थ वर्तमान कूटका रक्षक एक दिग्गजेन्द्रदेव दे. लोक १३ । अंजनमूल-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/१० । अंजनमूलक-रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/१३ । अंजनवर-पध्यलोकके अन्तसे १वौं सागर व द्वीप-दे. लोक ॥१। अंजनशैल-विदेह क्षेत्रस्य भद्रशाल वनमें एक दिग्गजेन्द्र पर्वत दे. लोक ॥३॥ अंजना-१. (प. पु. १५/१६,६१,३०७ ) महेन्द्रपुरके राजा महेन्द्रको पुत्री पवनायसे विवाही तथा हनुमान्को जन्ममाता। २. नरककी चौथी पृथिवी, पंकप्रभाका अपर नाम है। -दे. पंकप्रभा। नरक अंजसा-न्या.वि.टी. १/२/८७/१ तत्त्वत इत्यर्थः। तत्त्व रूपसे। अंड-स.सि. २/३३/१८६. यन्नखरवक्सदृशमुपात्तकाठिन्यं शुक्रशोणितपरिवरण परिमण्डलं तदण्डम् । = जो नखको स्वाके समान कठिन है, गोल है, और जिसका आवरण शुक्र और शोणितसे बना है उसे अण्ड कहते हैं। (रा. वा. २/३३/२/१४३/३२) (गो. जो./जी. प्र.८४/२०७) अंडज जन्म-दे. गर्भ। अंडर-ध.१४/५.६.६३१८६/५ "तेसिं खंधाण ववरसहरो तेसि भवाणमवयवा वलंजुअच्छउडपुवावरभागसमाणा अंडर णाम।" जो उन स्कन्धों (मूली, थूअर आदि ) के अवयव हैं और जो वलंजुअकच्छउड़के पूर्वापर भागके समान हैं उन्हें अण्डर कहते हैं। (विशेष दे. वनस्पति ३/७)। ध.१४/५,६.६४/११२/५ ण च रस-रुहिर-मोससरुवंडराणं खंधावयवाणं तत्तो पुधभावेण अबढाणमयि । -स्कन्धों के अवयव स्वरूप रस, रुधिर तथा मांस रूप अण्डरोका उससे पृथक् रूप (स्कन्धसे पृथक रूप) अवस्थान नहीं पाया जाता। अतःकरण-द. मन । अंतःकोटाकोटी-ध.६/१,६-६,३३/१७४/६ अंतोकोड़ाकोड़ीए त्ति उत्ते सागरोवमकोडाको डिसंखेज कोडीहि खंडिदएगखंड होदि त्ति घेत्तव्वं । - अन्तःकोड़ाकोड़ी ऐसा कहनेपर एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमको संख्यात कोटियोंसे खंडित करनेपर जो एक खण्ड होता है, वह अन्तःकोड़ाकोड़ीका अर्थ ग्रहण करना चाहिये। गो. जी. भाषा ५६०/१००३/९ कोडिके ऊपरि अर कोड़ाकोलिके नीचे जो होइ ताकौ अंतःकोटाकोटी कहिए। अंत-रा. वा. २/२२/१/१३४/२६ अयमन्तशब्दोऽनेकार्थः। क्वचिदवयवे, यथा वखान्तः बसनान्तः । क्वचित्सामीप्ये, यथोदकान्तं गतः उदकसमीपे गत इति। क्वचिदवसाने वर्तते, यथा संसारान्तं गत' संसारावसानं गत इति । अन्त शब्दके अनेक अर्थ हैं । १. कहीं तो अवयवके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे वस्त्र के अन्त अर्थात् वस्त्र के अबयव । २ कहीं समीपताके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे 'उदकान्तंगतः' अर्थाव जलके समीप पहुंचा हुआ। ३. कहीं समाप्तिके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे 'संसारान्तगत' अर्थात् संसारकी समाप्तिको प्राप्त । म्या. दी. ३/७६/११७. अनेके अन्ता धर्माः सामान्यविशेषपर्यायगुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः। १. अनेक अन्त अर्थात धर्म (इस प्रकार अन्त शब्द धर्मवाचक भी है ) । २. गणितके अर्थ में भूमि अर्थात Last term or the last digit in numerical series दे, गणित II//३। अंतकृत-ध. ६/१,६-६,२१६/४१०/१ अष्टकर्मणामन्त विनाशं कुर्वन्तीति अन्तकृतः । अन्तकृतो भूत्वा सिझति सिद्धयन्ति निस्तिष्ठन्ति निष्पद्यन्तै स्वरूपेणेत्यर्थः। बुज्झति त्रिकालगोचरानन्तार्थव्यञ्जनपरिणामारमकाशेषवस्तुतत्त्वं बुद्धयन्ति अवगच्छन्तीत्यर्थः। -- जो आठ कोका अन्त अर्थात विनाश करते हैं वे अन्तकृत कहलाते हैं। अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, निष्ठित होते हैं व अपने स्वरूपसे निष्पन्न होते हैं, ऐसा अर्थ जानना चाहिए । 'जानते हैं, अर्थात् त्रिकालगोचर अनन्त अर्थ और व्यञ्जन पर्यायात्मक अशेष वस्तु तश्वको जानते व समझते हैं। अंतकृत केवली-ध १/१,१,२/१०२/२ संसारस्यान्तः कृतो येस्तेऽन्तकृतः (केवलिनः)।जिम्होंने संसारका अन्त कर दिया है उन्हें अन्तकृत केवली कहते हैं। २. महावीरके तीर्थके दस अन्तकृत केवलियोंका निर्देश ध. १/१, १, २/१०३/२ नमि-मतङ्ग सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलीकवलीक-किष्किविल-पालम्बाष्टपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थकरती...दारुणानुपसर्गानिर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतो... वर्धमान तीर्थकरके तीर्थ में न मि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, ममलीक, वलीक, किष्किविल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दश...दारुण उपसाँको जीतकर सम्पूर्ण कमों के क्षयसे अन्तकृत केवलो हुए। अंतकृददशांग-द्रव्य तज्ञानका आठवाँ अंग-. श्रुतज्ञान IIHI अंतडी-१. औदारिक शरीरमें अन्तड़ियोंका प्रमाण-दे. औदा रिक १/७ । २. इनमें षट्काल कृत हानि वृद्धि--दे. काल/४ । अंतरंग-* अंतरंग परिग्रह आदि-दे, वह वह विषय । अंतर-कोई एक कार्य विशेष हो चुकनेपर जितने काल पश्चाद उसका पुनः होना सम्भव हो उसे अन्तर काल कहते हैं । जीवोंकी गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बन्ध उदय आदि सर्व प्रकरणोंमें इस अन्तर कालका विचार करना ज्ञानकी विशदताके लिए आवश्यक है। इसी विषयका कथन इस अधिकार में किया गया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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