Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय श्रेष्ठ है. भविष्य के कल्पित सुख मेरे हाथ के नहीं हैं. वे विधि के अधीन हैं. उनके बारे में कुछ भी सोचना मरुमरीचिका का अनुसरण करना ही तो है !' वर्तमान पर सोचना दर्शनजगत् का ठोस व स्थायी सत्य है. वर्तमान में सोचने वाला अतीत के अन्धेरे में ठोकर खाते दिमाग को बचा सकता है. भविष्य के अदृश्य गर्त में गिरने से बच जाता है. माता नन्दू दोनों किनारों से पल्ला बचाकर जीवनपथ पर अग्रपद होना सीख चुकी थी. माँ ने हजारी के कहे पर कान दिया. तत्कालीन सादा जीवन और उच्च विचारों के संपोषक, प्रचारक व प्रसारक स्वामीजी मुनि श्रीजोरावरमलजी महाराजके दर्शनार्थ माँ नन्दू और पुत्र हजारी गए।' गुरुजी का उपदेश चल रहा था. ग्रहणशील हजारी ने सुना. उनकी संस्कारी आत्मा में गुरु का व्यापक दृष्टिकोण समाविष्ट हो गया. गुरु कह रहे थे : "मानव जीवन की उच्च भूमिका ‘भूमा' बनने से आती है. समस्त विश्व मेरा है. सब मेरे हैं. मैं सब का हूँ इस प्रकार व्यापक चिन्तन, मनुष्यको मोह, द्रोह, राग, द्वेष, क्रोध और अशान्ति से मुक्त कर शाश्वत सुख-शान्ति का अनुभव कराता है." गुरु के हृदय से निःसृत प्रभावोत्पादक धर्मदेशना सुनी. हजारी का मन स्वामीजी महाराज की निर्वेद व वैराग्य-मूलक वाणी में भीग गया. हजारी ने कहा : “माँ, मैं अब सबका बनना चाहता हूँ. मैं सबका हूँ. सब मेरे हैं. इस तरह मुझे विश्व-प्रेम का अधिकारी बनने दो." माँ मौन हो गई. "मां मौन क्यों हो ! तुम तो वर्तमान पर सोचने में सत्य के दर्शन करती हो न, गुरुमाता (चौथांजी)ने कहा था : 'अतीत और भविष्य के बारे में सोचना छोड़ो, बर्तमान पर सोचना सत्य है. अतीत और भविष्य के काल्पनिक जाल में मन को फंसाने से आत्मा गुरु (कबद्ध) होती है.” पुत्र की पकड़, प्रबल और तर्क-संगत थी. माता ने कहा : “गुरुणीजी का कहना ठीक था. तेरा कहना भी ठीक है." "मेरा कहना ठीक है, तो पूज्य गुरुजी के पास दीक्षा लेने की इजाजत दो.' यों हजारी ने अपने मन की बात कही. माँ और बेटा गुरुजी के दर्शन करके घर लौट गए. गुरु-दर्शन कर लेने पर प्रस्तुत जीवनी के आधार स्वामी श्रीहजारीमलजी महाराज ने भागवती दीक्षा का हृदय-भूमि में बीज वपन कर लिया था. वह उनकी निरंतर रट से अंकुरित हुआ. पुत्र की विजय हुई. माता प्रसन्न हुई. एक दिन स्नेहमयी माँ ने अपने प्यारे बेटे को मन की एक अनुभूति के क्षणों में कहा थाः ‘मेरे हिये के हार ! तू मेरी ममता का केन्द्रबिन्दु है ! पर तेरा निश्चय भी पाषाण-सा अचल है, यह जानकर ही मैं तुझे जैन-भिक्षु जीवन स्वीकार करने की अनुमति दे रही हूँ. तेरा हिया मेरा हिया है. तुझे साधना में सुख है, तो मैं बाधा नहीं बनूंगी! मुझे तेरे सुख से अलग कहीं सुख नहीं दीखता. वन्दनीय गुरुदेव की सेवा, तन-मन की एकता साधकर करना! सेवा बहुत कठिन कार्य है. यह सुयोग, नगर की कोलाहल भरी दुनिया से दूर रहकर एकांत में योग साधना करने वाले योगी के लिये भी दुष्कर है. सेवा से बचे समय में आत्म-मन्दिर में भक्ति का स्नेह उंडेलकर ज्ञान की ज्योति जगाना।'....... और माँ नन्दूबाई की भोली-भाली आँखों में ममता के दो श्वेत मोती छलक आये. "माँ ! तुमने गुरुदेव के समक्ष कहा था--मेरी छाती का धन (हजारी) आपके चरणों में सहर्ष अर्पित है, फिर आज ये विषाद के आँसू क्यों ठुलक आये हैं- तुम्हारी करुणामयी आँखों में ?" माँ से बेटा अपने मन की कितनी बड़ी बात सहज बनती देख सहज भाव से कह गया. 'बेटा, ये आंसू नहीं हैं, यह तो मातृत्व का लक्षण है, इनमें खारापन नहीं है, यह तो माँपन है. आंसू माता होने का प्रमाण है. "तो माँ ! मेरे संयम (मुनि-दीक्षा) स्वीकार करने से तेरा हिरदा कष्ट पाता है ?" बेटे का विमल प्रश्न था. 'जब हिरदा दूर होता है, तो कष्ट तो होता ही है. हृदय-से-हृदय दूर होने पर पीड़ा जन्म ही जाती है. पर तुझे साधना में सुख है, तो मैं अपनी पीड़ा भुला दूंगी. हजारी बेटा, मेरा सुख तुझे सुखी देखने से अलग नहीं है." .
१. नागौर (मरुभूमि)
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