Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain Eduction In
४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
हजारी के लिए मैं उनके जीते जी सोचा करती थी, इसके हजार हाथ हैं पर आज सोचती हूँ-हजारी के हजार हाथ नहीं, ये दो ही हाथ हैं. इन दो आँखों की बाट हृदय में बसा हजारी अब किसका आधार गहे ? 'अच्छा व्यवहार बुरे अवसर पर काम आता है' इसके पिता यह कहा करते थे. उनका अच्छा व्यवहार बेटी के हाथ पीले करने में सहयोगी न
होगा ? आज इस बात की भी परीक्षा कर देखूं. अगर किसी ने सहयोग किया तो ठीक, अन्यथा जगन्नियन्ता जैसे चाहेगा वैसे ही रहना है होनी सामने आएगी. होनी के हजार हाथ होते हैं, होनी के अब तक जीवन में क्या-क्या नहीं देखे हैं. जो-जो देखा वह सब आज उभर उभर कर याद आ रहा है. दुःख की घड़ी तो मनुष्य की बिसात नापने आती है. दो-दो पुत्र हैं. आज वे कमा खाने योग्य हैं. गोद तो एक ही गया है. वे चाहें तो कौन ऐसा है जो अपने भाई की हमदर्दी करने से रोक-टोक सकता है ? पर नहीं, मेरा यह सोचना ही गलत है. मेवाड़ का इतिहास बतलाता है-यहाँ खून के रिश्ते भी प्रतीत में टूटते रहे हैं. मेवाड़ की यह शान है कि यहाँ का वासिंदा जिसके यहाँ भी रहे उसका पूर्ण वफादार बनकर रहे.
आन और शान पर मरना मिटना तो यहाँ की पवित्र और पावनी परम्परा रही है. शान और आन के लिए तो पन्ना धाय ने जिसे अपना मान लिया था उस अमरसिंह की रक्षा के लिये, अधिकार के लोभी उदयसिंह को खड्ग हाथ लिए देख अपने पुत्र की ओर निस्संकोच भाव से संकेत कर दिया था. प्रसन्नता है मेरा पुत्र दत्तक पुत्र के रूप में जिस माँ की सूनी गोद भरने गया है उसकी गोद अमर रहे. मेरा क्या है ढलते सूरज की सी जिन्दगी रही है—बिता ही लूंगी और वह कहने लगी : 'मेरी कूंख से जाये जन्मे बेटे ! तू जहाँ गया है वहीं का होकर रहना. अपने देश की यह निर्मल परम्परा है. भाई और माँ के मोह में आकर अपने कर्तव्य से जरा भी उपरत मत होना तेरे पिता का और मेरा, मेरा और तेरे भाई हजारी का इसी में गौरव है.'
नन्द्र का स्वाभिमान : श्रमनिष्ठा :
माता नन्दू ने कुछ समय बाद पुत्री किशनीबाई के हाथ पीले कर निश्चिंतता अनुभव कर ली थी.
मनुष्य की जब किसी भी कार्य या नियमपालन पर से निष्ठा समाप्त हो जाती है तब वह दूसरों की ओर देखता है !
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अन्य की साधन - सुविधाओं पर निर्भर हो जाता है धाएँ किस प्रकार प्राप्त हों, फिर वह यह नहीं देखता प्रतिकूल !
उसका सम्पूर्ण प्रयत्न इस पर आधारित हो जाता है कि सुविकि अमुक कार्य मेरी आत्मा और संस्कृति के अनुकूल रहेगा या
वह परम निष्ठावान थी. उस के हिए का हार हजारी नौ वर्ष का हो गया. उसे स्मरण आया :
'हजारी के लिए मोती की सम्पत्ति में से कुछ बचा खुचा था वह भी धीरे-धीरे लालची लोगों के कब्जे में हो गया.' भारत की असहाय नारी क्या करती ? मेरे तेरे से अपेक्षा ? पर यह कार्य मेवाड़ की स्वाभिमानिनी नन्दू को स्वीकार्य नहीं था, तात्कालिक ओसवाल जाति के विधिनिषेधों के अनुसार घर से बाहर जाकर श्रम के नाम पर कुछ करना सम्भव न था. हाथ पसारने का विचार उसके रक्ताणुत्रों में भी प्रविष्ट न हुआ था.
एक दिन माता नन्दूबाई हजारी के जन्मस्थान (डांसरिया, टाडगढ़ के समीप मेवाड़) से ४२ मील दूर, रसभूमि राजस्थान के ब्यावर नगर में काम की तलाश में चली आई. डांसरिया में मोतीलालजी की खून पसीने की मेहनत का एक मकान और कुछ जमीन शेष थी. ब्यावर में रहते-रहते काम किया. आत्मा के अरणु-अणु में विश्वास, पुरुषार्थ में पूर्ण निष्ठा और स्वाभिमान की ज्योति, ज्योतिमान हो गई कि मैं किसी पर आधारित नहीं. सब ओर से आत्मीय सम्बन्ध की डोर का सिरा टूट गया तो क्या हुआ ? मैंने कभी किसी के आगे हाथ तो नहीं पसारा !'
नन्दू को अपने मकान और जमीन, हजारी की किल्लोलस्थली - जन्मभूमि का ममत्व विकल करने लगा. कुछ दिन के लिए डांसरिया गई. परन्तु अधिक दिन वहां रहना उनके मन को कचोटने लगा. पुनः शीघ्र ही सब देखभाल कर, पुत्र सहित लौट आई. काम करने लगी. किसी से प्रीत, न डाह. अतीत के सलोने अलोने सब स्वप्न बिसार, श्रम कर सुखपूर्वक
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