Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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गणितसारसंग्रहः
[१.७यो विद्यानद्यधिष्ठानो मर्यादावज्रवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिर्महान् ॥ ७ ॥ विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥ ८ ॥
गणितशास्त्रप्रशंसा लौकिके वैदिके वापि तथा सामायिकेऽपि यः । व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते ।। ९ ॥ कामतन्त्रेऽर्थशास्त्रे च गान्धर्वे नाटकेऽपि वा । सूपशास्त्रे ती वैद्ये वास्तुविद्यादिवस्तुषु ॥१०॥ छन्दोऽलङ्कारकाव्येषु तर्कव्याकरणादिषु । कलागुणेषु सर्वेषु प्रस्तुतं गणितं परम् ॥११॥ सूर्यादिग्रहचारेषु ग्रहणे ग्रहसंयुतौ । त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ च सर्वत्राङ्गीकृतं हि तत् ॥१२॥ द्वीपसागरशैलानां संख्याव्यासपरिक्षिपः । भवनव्यन्तरज्योतिर्लोककल्पाधिवासिनाम् ।।१३।।
१P वेदिनः । २ M स्यात् ; B चापि । ३ B च । ४ KM महा । ५ MB दण्डा। ६ MB पुरा । ७ MM° शिपाः।
होकर सच्चरित्रता की वज्रमयी मर्यादा वाले हैं और जो जैन-धर्म रूपी रत्न को हृदय में रखते हैं, इसलिये वे यथाख्यात चारित्र के महान् सागर के समान सुप्रसिद्ध हुए हैं ॥ ७ ॥ एकान्त पक्ष को नष्ट कर जो स्याद्वादरूपी न्यायशास्त्र के वादी हुए हैं ऐसे महाराज नृपतुंग का शासन फले-फूले ॥ ८॥
गणितशास्त्रप्रशंसा सांसारिक, वैदिक तथा धार्मिक आदि सब कार्यों में गणित उपयोगी है ॥९॥ कामशास्त्र में, अर्थशास्त्र में, संगीत व नाट्यशास्त्र में, पाकशास्त्र (सूपशास्त्र) में और इसी तरह औषधि-शास्त्र में तथा वास्तु-विद्या (निर्माण-कला) में, छन्द, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण आदि इन सभी कलाओं में गणना का विज्ञान श्रेष्ठ माना जाता है ॥१०-११॥ सूर्य तथा अन्य ग्रह-नक्षत्रों की गति के संबंध में ग्रहण और ग्रह-संयुति (संयोग) के सम्बन्ध में, त्रिप्रश्न के विषय में और चन्द्रमा की गति के विषय में-सर्वत्र इसे उपयोग में लाते हैं ॥१२॥ द्वीपों, समुद्रों और पर्वतों की संख्या, व्यास और परिमिति; भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिलोकवासी, कल्पवासी देवों के तथा नारकी जीवों के श्रेणिबद्ध और इंद्रक
(८) 'स्यात्' शब्द निपात है जो एकान्त का निराकरण करके अनेकान्त का प्रतिपादन करता है। यह शब्द 'कथंचित्' का पर्यायवाची है और एक निश्चित् अपेक्षा को निरूपित करता है। इस प्रकार, वैज्ञानिक एवं युक्तियुक्त स्याद्वाद जो जैन-दर्शन एवं तत्त्वज्ञान की नींव है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने के हेतु उसके अनन्त धमों में से एक समय में एक धर्म का प्रतिपादन करता है। प्रत्येक धर्म का वर्णन उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्म की अपेक्षा से सप्तभंगी में किया जाता है। उदाहरणार्थअस्तित्व एक धर्म है, और नास्तित्व उसका प्रतिपक्षी धर्म है। अपने प्रतिपक्षी सापेक्ष अस्तित्व धर्म की अपेक्षा से सप्तभंगी इस प्रकार बनेगी-(१) घट कथंचित् है, (२) घट कथंचित् नहीं है, (३) घट कथंचित् है और नहीं है, (४) घट कथंचित् अवक्तव्य है, (५) घट कथंचित् है और अवक्तव्य है, (६) घट कथंचित् नहीं है और अवक्तव्य है, (७) घट कथंचित् है, नहीं है, और अवक्तव्य है।
(१२) त्रिप्रश्न संस्कृत के ज्योतिर्लोक विज्ञान विषयक ग्रन्थों में वर्णित एक अध्याय का नाम है जो तीन प्रश्नों के विषय में प्रतिपादन करने के कारण इस नाम से प्रसिद्ध है।
हादि ज्योतिष बिम्बों के सम्बन्ध में दिक् (दिशा), दशा (स्थिति) एवं काल (समय) विषयक होते हैं।