Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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- ६. ३३३३]
मिश्रकव्यवहारः
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अत्रोद्देशकः पञ्चतरैकेनाग्रं व्यवघटिता गणितविन्मिश्रे । समचतुरश्रश्रेढी कतीष्टकाः स्युर्ममाचक्ष्व ॥३३१३।। नन्द्यावर्ताकारं चतुस्तराः षष्टिसमघटिताः । सर्वेष्टकाः कति स्युः श्रेढोबद्धं ममाचक्ष्व ॥३३२।।
छन्दः शास्त्रोक्तषट्प्रत्ययानां सूत्राणिसमदलविषमखरूपं द्विगुणं वर्गीकृतं च पदसंख्या । संख्या विषमा सैका दलतो गुरुरेव समदलतः ॥३३३३।।
उदाहरणार्थ प्रश्न ५ सतहवाली एक वर्गाकार बनावट तैयार की गई है। सबसे ऊपर की सतह में केवल : इंट है। हे प्रश्न की गणना जानने वाले मित्र, इस बनावट में कुल कितनी इंटें हैं ? ॥३३१।। नन्द्यावर्त के आकार की एक बनावट उत्तरोत्तर इंटों की सतहों से तैयार की गई है। एक पंक्ति में सबसे ऊपर की इंटों का संख्यात्मक मान ६० है, जिसके द्वारा ४ सतहें सम्मितीय बनाई गई हैं। बतलाओ इसमें कुल कितनी ईंटें लगाई गई हैं ? ॥३३२३॥
छन्द (prosody ) शास्त्रोक्त छः प्रत्ययों को जानने के लिये नियम
दिये गये शब्दांशिक छन्द में शब्दांशों ( अक्षरों) अथवा पदों की युग्म और अयुग्म संख्या को अलग स्तम्भ में क्रमशः ० और १ द्वारा चिन्हित किया जाता है। (चिन्हित करने की विधि इसी अध्याय के ३१११ वे सूत्र में देखिये । ) वह इस प्रकार है : युग्ममान को आधा किया जाता है, और अयुग्म मान में से १ घटाया जाता है । इस विधि को तब तक जारी रखा जाता है, जब तक कि अंततोगत्वा शून्य प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त अंकों की श्रङ्खला में अंकों को दुगुना कर दिया जाता है,
और तब श्रङ्खला की तली से शिखर तक की संतत गुणन क्रिया में, वे अंक, जिनके ऊपर शून्य आता है, वर्गित कर दिये जाते हैं । इस संतत गुणन का परिणामी गुणनफल छन्द के विभिन्न सम्भव श्लोकों की संख्या होता है ॥३३३३॥ इस प्रकार प्राप्त सभी प्रकार के श्लोकों में लघु और गुरु
किसी भी सतह की लम्बाई अथवा चौड़ाई पर ईटों की संख्या, अग्रिम निम्न (नीची ) सतह की ईटों से १ कम होती है।
( ३३२३ ) गाथा में निर्दिष्ट नन्द्यावर्त आकृति यह है- '
(३३३१-३३६.) गुरु और लघु शब्दांशों ( syllables) के भिन्न-भिन्न विन्यास के संवादी कई विभेद उत्पन्न होते हैं, क्योंकि श्लोक ( stanza) के एक चौथाई भाग को बनानेवाले पद (line) में पाया जानेवाला प्रत्येक शब्दांश या तो लघु अथवा गुरु हो सकता है। इन विभेदों के विन्यासों के लिये कोई निश्चित क्रम उपयोग में लाया जाता है । यहाँ दिये गये नियम हमें निम्नलिखित को निकालने में सहायक होते हैं, (१) निर्दिष्ट शब्दांशों की संख्या वाले छन्द में सम्भव विभेदों की संख्या, (२) इन प्रकारों में शब्दांशों के विन्यास की विधि, (३) स्वक्रमसूचक स्थिति द्वारा निर्दिष्ट किसी विभेद में शब्दांशों का विन्यास, (४) शब्दाशों के निर्दिष्ट विन्यास की क्रमसूचक स्थिति, (५) निर्दिष्ट संख्या के गुरु और लघु शब्दांशों वाले विभेदों की संख्या, और (६) किसी विशेष छन्द के विभेदों का प्रदर्शन करने के लिये उदग्र (लम्ब रूप) जगह का परिमाण ।
ग० सा० सं०-२३