Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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खातव्यवहार बाह्याभ्यन्तरसंस्थिततत्तत्क्षेत्रस्थबाहुकोटिभुवः। स्वप्रतिबाहुसमेता भक्तास्तत्क्षेत्रगणनयान्योन्यम् ॥९॥ गुणिताश्च वेधगुणिताः कर्मान्तिकसंज्ञगणितं स्यात् । तद्बाह्यान्तरसंस्थिततत्तत्क्षेत्रे फलं समानीय ॥ १० ॥ संयोज्य संख्ययाप्तं क्षेत्राणां वेधगुणितं च । औण्ड्रफलं तत्फलयोविशेषकस्य त्रिभागेन । संयुक्तं कर्मान्तिकफलमेव हि भवति सूक्ष्मफलम् ।। ११३ ॥
ऊपरी छेदीय ( sectional ) क्षेत्र का निरूपण करनेवाली आकृति के आधार और अन्य भुजाओं के मानों को क्रमशः तलो के छेदीय क्षेत्र का निरूपण करनेवालो आकृति के आधार और संवादी भुजाओं के मानों में जोड़ते हैं । इस प्रकार प्राप्त कई योग प्रश्न में विचाराधीन छेदीय क्षेत्रों की संख्या द्वारा भाजित किये जाते हैं। तब भुजाएँ ज्ञात रहने पर, क्षेत्रफल निकालने के नियमानुसार, परिणामी राशियाँ एक दूसरे के साथ गुणित की जाती हैं। तब कर्मान्तिक का घनफल उत्पन्न होता है। ऊपरो छेदीय क्षेत्र और नितल छेदीय क्षेत्र द्वारा निरूपित उन्हीं आकृतियों के संबंध में, इनमें से प्रत्येक क्षेत्र का क्षेत्रफळ अलग-अलग प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त क्षेत्रफलों को आपस में जोड़ा जाता है, और तब योगफल विचाराधीन छेदीय क्षेत्रों को संख्या द्वारा भाजित किया जाता है ॥ ९-११३॥
इस प्रकार प्राप्त भजनफल गहराई के मान द्वारा गुणित किया जाता है। यह भौण्ड्र नामक घनफल माप को उत्पन्न करता है। यदि इन दो फलों के अन्तर की एक तिहाई राशि कमोन्तिक फल में जोड़ दी जाय तो इष्ट घनफल का सूक्ष्म रूप में ठीक मान निश्चय रूप से प्राप्त होता है।
(९-११३ ) दी गई आकृति में अब स द नियमित खात (गदे) का ऊपरी छेदीय क्षेत्र (मुख) है, और ह फ ग ह नितल छेदीय क्षेत्र है।
इस नियम में व्यवहार में लाई गई आकृतियाँ या तो विपाटित ( काटे गये ) स्तूप (pyramids) हैं, जिनके आधार आयत अथवा त्रिभुज होते हैं, अथवा विपाटित शंक्वाकार ( शंकु के आकार की) वस्तुएँ हैं। इस नियम में खातों की घनाकार समाई के तीन प्रकार के मापों का वर्णन है । इसमें से दो, जैसे कर्मातिक और औण्ड्र माय, समाइयों के न्यावहारिक मानों को देते हैं । इन मानों की सहायता से सूक्ष्म माप की गणना की जाती है। यदि का कौतिक फल और आ औण्ड्र फल का निरूपण करते हों, तो सूक्ष्म रूप से ठीक माप (आ- का+का) अर्थात् (3 का+ आ) होता है।
यदि काटे गये तथा वर्ग आधारवाले स्तूप के ऊपरी तथा निम्न - तल की भुजाओं का माप क्रमशः 'अ' और 'ब'' हो तो घनाकार समाई का सक्ष्म रूप से ठीक मापऊ (अ+ब'२+२ अब') के बराबर बतलाया जा सकता है, जहाँ