Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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खातव्यवहार
३६१
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समचतुरश्रा वापी नवहस्तघना नगस्य तले। तच्छिखराजलधारा चतुरश्राङ्गलसमानविष्कम्भा ॥ ३५ ॥ पतिताग्रे विच्छिन्ना तया घना सान्तरालजलपूणों । शैलोत्सेधं वाप्यां जलप्रमाणं च मे हि ॥३६॥ वापी समचतुरश्रा नवहस्तघना नगस्य तले । अङ्गुलसमवृत्तघना जलधारा निपतिता च तच्छिखरात् ।। ३७ ।। अग्रे विच्छिन्नाभूत्तस्या वाप्या मुखं प्रविष्टा हि । सा पूर्णान्तरगतजलधारोत्सेधेन शैलस्य । उत्सेधं कथय सखे जलप्रमाणं च विगणय्य ॥ ३८३ ।। समचतुरश्रा वापी नवहस्तघना नगस्य तले। तच्छिखराजलधारा पतिताङ्गलघनत्रिकोणा सा ॥ ३९ ॥ वापीमुखप्रविष्ठा साग्रे छिन्नान्तरालजलपूर्णा । कथय सखे विगणय्य च गिर्युत्सेधं जलप्रमाणं च ।। ४०३ ।।
किसी पर्वत के तल में एक वापिका, समभुज चतुर्भुज छेद वाली है, जिसका प्रत्येक विमिति (dimension) में माप ९ हस्त है। पर्वत के शिखर से समांग समभुज भुजावाले , अंगल चतुर्भुज छेदवाली एक जलधारा बहती है। ज्योंही जलधारा वापिका में गिरती है, त्योंही शिखर से जलधारा टूट जाती है । तिस पर भी, उसके द्वारा वह वापिका पानी से पूरी तरह भर जाती है । पर्वत की ऊँचाई तथा वापिका में पानी का माप बतलाओ ॥ ३५-३६॥
पर्वत की तली में समचतुरश्र छेदवाली वापिका है, जिसका (तीन में से ) प्रत्येक विमिति में विस्तार ९ हस्त है । पर्वत के शिखर से, . अंगुल व्यास वाले समवृत्त छेद वाली जलधारा बहती है। ज्योंही जलधारा वापिका में गिरना प्रारंभ करती है, त्योंही शिखर से जलधारा टूट जाती है। उतनी जलधारा से वह वापिका पूरी भर जाती है। हे मित्र, मुझे बतलाओ कि पर्वत की ऊँचाई क्या है, और पानी का माप क्या है ? ॥ ३७-३८३॥
किसी पर्वत की तली में समचतुरश्र छेदवाली वापिका है जिसका (तीनों में से) प्रत्येक विमिति में विस्तार ९ हस्त है । पर्वत के शिखर से, प्रत्येक भुजा १ अंगुल है जिसकी ऐसे समत्रिभुजाकार छेदवाली जलधारा बहती है। ज्योंही जलधारा वापिका में गिरना प्रारंभ करती है, स्योंही शिखर से जलधारा टूट जाती है। उतनी जलधारा से वह वापिका पूरी भर जाती है । हे मित्र, गणना कर मुझे बतलाओ कि पर्वत की ऊँचाई क्या है और पानी का माप क्या है ? ॥ ३९१-४०॥
(३५-४२१) यहाँ अध्याय ५ के १५-१६ श्लोक में दिया गया प्रश्न तथा उसके नोट का प्रसंग दिया गया है। पानी का आयतन कदाचित् वाहों में व्यक्त किया गया है । (प्रथम अध्याय के ३६ से लेकर ३८ तक के श्लोकों में दिये गये इस प्रकार के आयतन माप के संबंध में सूची देखिये)। कन्नड़ी टीका में यह दिया गया है कि १ घन अंगुल पानी, १ कर्ष के तुल्य होता है। प्रथम अध्याय के ४१ वें श्लोक में दी गई सूची के अनुसार, ४ कर्ष मिलकर एक पल होता है। उसी अध्याय के ४४वें श्लोक के अनुसार १२३ पल मिलकर एक प्रस्थ होता है, और उसी के ३६-३७ श्लोक के अनुसार प्रस्थ और वाह का संबंध ज्ञात होता है।