Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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-६. ३३६३
मिश्रकव्यवहारः
[१७९
रूपाद्द्विगुणोत्तरतस्तूद्दिष्टे लाङ्कसंयुतिः सैका । एकाद्यकोत्तरतः पदमूर्ध्वाधर्यतः क्रमोत्क्रमशः ॥३३५३।। स्थाप्य प्रतिलोमन्नं प्रतिलोमन्नेन भाजितं सारम् । स्याल्लघुगुरुक्रियेयं संख्या द्विगुणैकवर्जिता साध्वा ।।३३६।।
अक्षर देखते हुए), १ जोड़ने अथवा नहीं जोड़ने के साथ आधी करने की क्रिया, नियमित रूप से, तब तक जारी रखना चाहिये, जब तक कि, प्रत्येक दशा में छन्द के प्रत्ययों की यथार्थ संख्या प्राप्त नहीं हो जाती।
यदि स्वाभाविक क्रम में किसी प्रकार के पद का प्ररूपण करनेवाली संख्या, (जहाँ अक्षरों का विन्यास ज्ञात करना होता है ) युग्म हो तो वह आधी कर दी जाती है और लघु अक्षर को सूचित करती है । यदि वह अयुग्म हो, तो उसमें १ जोड़ा जाता है और तब उसे आधा किया जाता है और यह गुरु अक्षर दर्शाती है। इस प्रकार गुरु और लघु अक्षरों को उनकी क्रमवार स्थितिमें बारबार रखना पड़ता है जब तक कि पद में अक्षरों की महत्तम संख्या प्राप्त नहीं हो जाती। यह, श्लोक ( stanza) के इष्ट प्रकार में, गुरु और लघु अक्षरों के विन्यास को देता है ॥३३॥
जहाँ किसी विशेष प्रकार का श्लोक दिया होने पर उसकी निर्दिष्ट स्थिति ( छन्द में सम्भव प्रकारों के इलोकों में से ) निकालना हो, वहाँ एक से आरम्भ होनेवाली और २ साधारण निष्पत्ति वाली गुणोत्तर श्रेढि के पदों ( terms ) को लिख लिया जाता है, ( यहाँ श्रेढि के पदों की संख्या, दिये गये छन्दों में अक्षरों की संख्या के तुल्य होती है)। इन पदों ( terms) के ऊपर संवादी गुरु या लघु अक्षर लिख लिये जाते हैं। तब लघु अक्षरों के ठीक नीचे की स्थिति वाले सभी पद (terms) जोड़े जाते हैं। इस प्रकार प्राप्त योग एक द्वारा बढ़ाया जाता है । यह इष्ट निर्दिष्ट क्रमसंख्या होती है।
१ से आरम्भ होने वाली (और छन्द में दिये गये अक्षरों की संख्या तक जाने वाली) प्राकत संख्याएँ, नियमित क्रम और म्युत्क्रम में, दो पंक्तियों में, एक दूसरे के नीचे लिख ली जाती हैं । पंक्ति की संख्याएँ १, २,३ ( अथवा एक ही बार में इनसे अधिक) द्वारा दाएँ से बाएँ ओर गुणित की जाती हैं। इस प्रकार प्राप्त ऊपर की पंक्ति सम्बन्धी गुणनफल नीचे की पंक्ति सम्बन्धी संवादी गुणनफलों द्वारा भाजित किये जाते हैं। तब प्राप्त भजनफल, कविता ( verse ) में १,२,३ या इनसे अधिक, छोटे या बड़े अक्षरों वाले ( दिये गये छन्द में ) श्लोकों ( stanzas) के प्रकारों की संख्या की प्ररूपणा करता है । इसे ही निकालना इष्ट होता है।
दिये गये छन्द ( metre ) में श्लोकों के विभेदों की सम्भव संख्या को दो द्वारा गुणित कर एक द्वारा हासित किया जाता है। यह फल अध्वान का माप देता है।
यहाँ. छन्द के प्रत्येक दो उत्तरोत्तर विभेदों ( प्रकारों ) के बीच श्लोक (stanzas) के तल्य अंतराल ( interval ) का होना माना जाता है ।।३३५३-३३६३।।
होता है। इसलिये ऐसा कहते हैं कि त्रि-शब्दांशिक छन्द में यह छठवाँ प्रकार (विभेद ) है।
(५) मानलो प्रश्न यह है : २ छोटे शब्दांशों वाले विभेद कितने हैं?
प्राकृत संख्याओं को नियमित और विलोम क्रम में एक दूसरे के नीचे इस प्रकार रखोः १२३ दाहिने ओर से बाई ओर को, ऊपर से और नीचे से दो पद ( terms ) लेकर, हम पूर्ववर्ती गुणनफल