Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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२३८]
गणितसारसंग्रहः
[७. १८३३
द्वादश च पञ्चदश च स्तम्भान्तरभूमिरपि च चत्वारः। द्वादशकस्तम्भायाद्रज्जुः पतितान्यतो मूलात् ॥ १८३३ ॥ आक्रम्य चतुर्हस्तात्परस्य मूलं तथैकहस्ताच्च । पतितापात्काबाधा कोऽस्मिन्नवलम्बको भवति ।। १८४३ ॥ बाहूप्रतिबाहू द्वौ त्रयोदशावनिरियं चतुर्दश च । वदनेऽपि चतुर्हस्ताः काबाधा कोऽन्तरावलम्बश्च ।। १८५३ । क्षेत्रमिदं मुखभूम्योरेकैकोनं परस्परामाच्च । रज्जुः पतिता मूलात्त्वं ब्रह्मवलम्बकाबाधे ।। १८६३ ॥ बाहुस्त्रयोदशैकः पञ्चदश प्रतिभुजा मुखं सप्त । भूमिरियमेकविंशतिरस्मिन्नवलम्बकाबाधे ।। १८७३ ।।
स्तंभों के बीच का अंतराल (अंतर) हस्त है। १२ हस्त वाले स्तंभ के ऊपरी अग्र से एक धागा सूत्र आधार रेखा पर दूसरे स्तंभ के मूल से ४ हस्त आगे तक फैलाया जाता है। इस दूसरे स्तंभ ( जो १५ हस्त ऊँचा है ) के अम्र से एक धागा उसी प्रकार आधार रेखा पर पहिले स्तंभ के मूल से १ हस्त आगे तक फैलाया जाता है। यहाँ आबाधाओं और अंतरावलम्बक के माप को बतलाओ ॥ १८५३ ॥ दो बराबर भुजाओं वाले चतुर्भुज क्षेत्र के संबंध में दो भुजाओं में से प्रत्येक १३ हस्त है। यहाँ आधार १४ हस्त, और ऊपरी भुजा ४ हस्त है। अंतरावलम्बक द्वारा बनाये गये आधार के खंडों ( आबाधाओं) के माप क्या हैं, और अंतरावलम्बक का माप क्या ? है ॥ १८५३ ॥ उपर्युक्त चतुर्भुज क्षेत्र के संबंध में ऊपरी भुजा और आधार प्रत्येक १ हस्त कम हैं। दो लंबों में से प्रत्येक के ऊपरी अग्र से एक धागा दूसरे लंब के मूल तक पहुंचने के लिये फैलाया जाता है । अंतरावलम्बक और उत्पन्न आबाधाओं के माप क्या हैं ? ॥१८६१॥ असमान भुजाओं वाले चतुर्भुज के संबंध में एक भुजा १३ हस्त, सम्मुख भुजा १५ हस्त, ऊपरी भुजा ७ हस्त और आधार २१ हस्त है । अंतरावलम्बक तथा उससे उत्पन्न हुए आबाधाओं के मान क्या-क्या है? ॥१८७१॥ एक समबाहु
(१८५३) यहाँ दो बराबर भुजाओं वाला चतुर्भुज क्षेत्र दिया गया है। दूसरी गाथा में तीन बराबर भुजाओं वाला तथा और अगली गाथा में विषमबाहु चतुर्भुज दिये गये हैं। इन सब दशाओं में चतुर्भुज के कर्ण सबसे पहिले गाथा ५४ अध्याय ७ के नियमानुसार प्राप्त किये जाते हैं। तब ऊपरी भुजा के अंतों से आधार पर गिराये हुए लंबों के मापों और उन लंबों द्वारा उत्पन्न आधार के खंडों (आबाधाओं) को (अध्याय ७ की ४९ वी गाथा में दिये गये नियम का प्रयोग कर ) प्राप्त करते हैं। तब बों के मापों को हस्त मानकर, ऊपर १८०१ वीं गाथा के नियम को प्रयुक्त कर, अंतरावलम्बक तथा उससे उत्पन्न आबाधाओं को प्राप्त करते हैं। १८७३ वी गाथा में दिया गया प्रश्न कन्नड़ी टीका में कुछ भिन्न विधि से किया गया है। ऊपरी भुजा आधार के समानान्तर मान ली जाती है, और लंब तथा उससे उत्पन्न आबाधाओं के माप ऐसे त्रिभुज की रचना करके प्राप्त करते हैं, जिसकी भुजाएँ उक्त चतुर्भुज की भुजाओं के बराबर होती हैं, और बिसका आधार चतुर्भुज के आधार और ऊपरी भुजा के अन्तर के बराबर होता है।