Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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-७.६१]
क्षेत्रगणितम्यवहारः वगैस्त्रयोदशानां त्रिसमचतुर्बाहुके पुनर्भूमिः । सप्त चतुश्शतयुक्तं कर्णाबाधावलम्बगणितं किम् ॥ ५८ ॥ विषमचतुरश्रबाहू त्रयोदशाभ्यस्तपञ्चदशविंशतिकौ । पश्चघनो वदेनमधस्त्रिशतं कान्यत्र कर्णमुखफलानि ।। ५९ ॥
इतः परं वृत्तक्षेत्राणां सूक्ष्म फलानयनसूत्राणि । तत्र समवृत्तक्षेत्रस्य सूक्ष्मफलानयन सूत्रम्वृत्तक्षेत्रव्यासो दशपदगुणितो भवेत्परिक्षेपः । । व्यासचतुर्भागगुणः परिधिः फलमधेमधे तत् ।। ६० ।।
अत्रोद्देशकः समवृत्तव्यासोऽष्टादश विष्कम्भश्च षष्टिरन्यस्य । द्वाविंशतिरपरस्य क्षेत्रस्य हि के च परिधिफले ॥ ६१ ॥ १३ ४ २० हैं। ऊपरी भुजा (५)3 है, और नीचे की भुजा ३०० है । विकर्ण से आरम्भ कर सबके मान यहाँ क्या क्या हैं ? ।। ५९ ।।
इसके पश्चात् वक्ररेखीय क्षेत्रों के सम्बन्ध में सूक्ष्म मानों को निकालने के लिये नियम दिये जाते हैं। उनमें से समवृत्त के सम्बन्ध में सक्षम मान निकालने के लिये नियम
वृत्त का व्यास १० के वर्गमूल से गुणित होकर परिधि को उत्पन्न करता है। परिधि को एक चौथाई व्यास से गुणित करने पर क्षेत्रफल प्राप्त होता है। अर्द्धवृत्त के सम्बन्ध में यह इसका आधा होता है ॥ ६०॥
उदाहरणार्थ प्रश्न किसी वृत्ताकार क्षेत्र के सम्बन्ध में वृत्त का व्यास १८ है। दूसरे के सम्बन्ध में ६० है: एक और अन्य के सम्बन्ध में २२ है। परिधियां और क्षेत्रफल क्या क्या हैं । ॥ ६१ ॥ अर्द्धवृत्ताकार क्षेत्र चक्रीय चतुर्भुजों के लिये ठीक है। लम्ब अथवा विकणों के मानों को पहिले से बिना जाने हुए चतुर्भुज के क्षेत्रफल को निकालने के प्रयत्न के विषय में भास्कराचार्य परिचित थे। यह उनकी लीलावती ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथा से प्रकट होता है--
लम्बयोः कर्णयोकमनिर्दिश्यापरान् कथम् ।
पृच्छत्यनियतत्वेऽपि नियतं चापि तत्फलम् ॥ सपृच्छकः पिशाचो वा वक्ता वा नितरां ततः।
यो न वेत्ति चतुर्बाहुक्षेत्रस्यानियतां स्थितिम् ॥
परिधि (६०) इस गाथानुसार या का मान V१० = ३.१६...है। इससे भी सूक्ष्म मान प्राप्त करने के लिये नवीं शताब्दी की धवला टीका ग्रंथों में निम्नलिखित रीति दी है१६ (व्यास)+१६
-+३ (व्यास ) = परिधि । इस सूत्र के वाम पक्ष के प्रथम पद में से अंश
११३ का+१६ हटा देने पर T का मान ३५५ अथवा ३.१४१५९३ प्राप्त होता है, जिसे चीन में ४७६ ईस्वी पश्चात् त्सु-शुंग-चिह द्वारा उपयोग में लाया गया है । वास्तव में यह सूत्र एक प्रदेश के व्यास के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है। असंख्यात प्रदेशों वाले अंगुल आदि व्यास के माप की इकाइयों के लिये + १६ का मान नगण्य हो जाता है, और चीनी मान प्राप्त हो जाता है। आर्यभट्ट द्वारा दिया गया 7 का मान ३३४४ = ३१४११६ है। भास्कराचार्य द्वारा भी यह मान (३१३९) रूप में हासित कर प्ररूपित किया गया है।