Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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५४]
गणितसारसंग्रहः
[३.७४
लब्धहरः प्रथमस्यच्छेदः सस्वांशकोऽयमपरस्य । प्राक् स्वपरेण हतोऽन्त्यः स्वांशेनैकांशके योगे।७८।
_अत्रोद्देशकः सप्तकनवकत्रितयत्रयोदशांशप्रयुक्तराशीनाम् । रूपं पादः षष्ठः संयोगाः के हराः कथय ।।७९।।
एकांशकानामेकांशेऽनेकांशे च फले छेदोत्पत्तौ सूत्रम्सेष्टो हारो भक्तः स्वांशेन निरग्रमादिमांशहरः । तद्युतिहाराप्तष्टः शेषोऽस्मादित्थमितरेषाम् ॥८॥
___ जब कुछ इष्ट भिन्नों के योग का अंश १ हो, तब उनके चाहे हुए हरों को निकालने के लिये योग के हर को प्रथम राशि का हर मान लो और इस हर को अपने अंश से संयुक्त कर उसे उत्तरवती राशि का हर मान लो, और ऐसे प्रत्येक हर को क्रमवार तत्काल उत्तरवर्ती के द्वारा गुणित करते चले जाओ । अन्तिम हर को उसी के अंश द्वारा गुणित करो ॥७८॥
उदाहरणार्थ प्रश्न जिनके अंश क्रमशः ७, ९, ३ और १३ हैं ऐसे भिन्नों के योग १, १, हैं। बतलाओ कि उन भिन्नीय राशियों के हर क्या हैं ।।७९॥
जिनका अंश १ है ऐसे कुछ इच्छित भिन्नों के हर निकालने के लिये नियम जब कि उन भिन्नों के योग का अंश १ अथवा और कोई दूसरी राशि हो
दिये गये योग के हर को जब कोई चुनी हुई राशि में मिलाते हैं और ताकि कुछ भी शेष न बचे इस तरह उसे उस योग के अंश द्वारा विभाजित करते हैं तो वह भिन्नों की चाही हुई श्रेढि के प्रथम अंश के सम्बन्ध में हर बन जाता है। ऊपर चुनी हुई राशि जब प्रथम भि के हर द्वारा विभाजित की जाती है और दिये गये योग के हर द्वारा भी विभाजित की जाती है तब वह इष्ट श्रेढि के शेष भिन्नों के योग को उत्पन्न करती है। इष्ट श्रेढि के शेष भिन्नों के इस ज्ञात योग से इसी तरह अन्य हरों को निकालते हैं ॥८॥
(७८ ) बीजीय रूप से यदि योग - हो, और अ, ब, स तथा द दिये गये अंश हों तो भिन्नों को निम्न रीति से जोड़ते हैं
अ
योग = न (न + अ) + (न + अ) (न +अ+ब) + (न + अ + ब) (न + अ + ब+स)
'द (न+अ+ब+स) अ (न+अ+ब)+बन
स+न+अ+ब न (न+ अ) (न+अ+ब) '(न+अ+ ब)(न+अ+ ब+स) (न+अ) (अ+ब)
अ+ब+न न (न+अ) (न+अ+ब) 'न+अ+ब न (न+अ+ब)
( ८० ) बीजीय रूप से, यदि में योग है तो प्रथम भिन्न
का होता है; और नियम