Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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–३. ७७ ]
पञ्चानां राशीनां रूपांशानां युतिर्भवेद्रूपम् । षण्णां सप्तानां वा के हाराः कथय गणितज्ञ ॥ ७६ ॥
विषमस्थानां छेदोत्पत्तौ सूत्रम्
एकांशकराशीनां व्याद्या रूपोत्तरा भवन्ति हराः । स्वासन्नपराभ्यस्ताः सर्वे दलिताः फले रूपे ॥७७॥ एकांशानामनेकांशानां चैकांशे फले छेदोत्पत्तौ सूत्रम् -
उदाहरणार्थ प्रश्न
जिनमें प्रत्येक का अंश एक है ऐसी पांच या छः अथवा सात विभिन्न भिन्नीय राशियों का योग प्रत्येक दशा में १ है । हे गणितज्ञ ! चाहे हुए हरों को निकालो ॥ ७६ ॥
भिन्नों की अयुग्म संख्या लेने पर हरों को निकालने के लिये नियम
जिनके प्रत्येक अंश १ हों ऐसी विभिन्न भिन्नीय राशियों का योग १ हो, तो चाहे हुए हर २ आरम्भ होकर, उत्तरोत्तर मान में १ द्वारा बढ़ते चले जाते हैं । प्रत्येक ऐसा हर उस संख्या से गुणित किया जाता है जो मान में तत्काल उत्तरवर्ती के बराबर होता है और तब उसे आधा किया जाता है ॥७७॥
कुछ इष्ट भिन्नों के विषय में चाहे हुए हरों को निकालने के लिए नियम जबकि उनके अंशों में प्रत्येक १ अथवा 1 से अन्य हो और जब उनके भिन्नीय योग का अंश भी १ हो
१
१
गुणोत्तर में जिसका प्रथम पद :
है और साधारण निष्पत्ति है अ की सभी पूर्णाक धनात्मक
अ
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१
१ से (अ
अ - १
है । इसलिये, यदि हम गुणोत्तर श्रेदि के योग में
१
अर्घाओं (मानों ) के लिये योग
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-
कलासवर्णव्यवहारः
अत्रोद्देशकः
1 x (न - १) वां पद } जोड़ते हैं
१
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२
१
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१
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_ २४३ ३x४ ४४५
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अ - २
के लिये उसमें जोड़ना पड़ता है । इस को नियम में प्रथम भिन्न कहा गया है और
अ- २
अ - १
अ - १
इसका मान ३ चुना गया है क्योंकि सभी भिन्नों का अंश १ होना चाहिए ।
१
( ७७ ) यहाँ
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(3-8)
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इस गाथा के नियम के अनुसार अन्तिम भिन्न
X श्रेढि का ( न + १ ) वां पद } न्यून होता
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प्राप्त होगा । इस से योग १ प्राप्त करने
१ अ- १
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२ [ ( ३
... +
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१
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+
१
( न - १) न X रे