Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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गणितसारसंग्रहः
[ ६. १०२३
समधनार्घानयनतज्ज्येष्ठधनसंख्यानयनसूत्रम्ज्येष्ठधनं सैकं स्यात् स्वविक्रयेऽन्त्यार्धगुणमपैकं तत् । क्रयणे ज्येष्ठानयनं समानयेत् करणविपरीतात् ॥ १०२ ॥
अत्रोद्देशकः
द्वावष्टौ षटूत्रिंशन्मूलं नृणां षडेव चरमार्थः । एकार्घेण क्रीत्वा विक्रीय च समधना जाताः ॥१०३३॥ सार्धैकमर्धमर्धद्वयं च संगृह्य ते त्रयः पुरुषाः ।
क्रयविक्रयौ च कृत्वा षभिः पश्चार्घात्समधना जाताः ।। १०४३ ।।
( व्यापार में लगाई गई ) सबसे ऊँची रकम ज्येष्ठ धन का मान तथा बेचने की तुल्य रकमें उत्पन्न करने वाली कीमतों के मान को निकालने के लिये नियम
लगाया गया सबसे बड़ा धन, १ में मिलाने पर ( बेची जाने वाली ) वस्तु के विक्रय की दर हो जाता है । वही ( बेचने की दर ) जब शेष वस्तु की ( दी गई ) बेचने की कीमत द्वारा गुणित होकर एक द्वारा हासित की जाती है तब खरीदने की दर उत्पन्न होती है । इस विधि को विपर्यसित (उल्टा ) करने पर कारबार में लगाया गया सबसे बड़ा धन निकाला जा सकता है ।। १०२३॥
उदाहरणार्थ प्रश्न
तीन मनुष्यों ने क्रमशः २, ८ और ३६ रकमें लगाईं । ६ वह कीमत है जिस पर शेष वस्तुएं बेची जाती हैं। उसी दर पर खरीद कर और बेच कर वे तुल्य धन वाले बन जाते हैं । खरीद और बेचने की कीमतों को निकालो ।। १०३३ ।। उन्हीं तीन मनुष्यों ने क्रमशः १२, रे और २३ धनों को व्यापार में लगाया और उन्हीं कीमतों पर उसी वस्तु का क्रय और विक्रय किया। अंत में, शेष को ६ द्वारा निरूपित राशि में बेचने पर वे समान धन वाले बन गये । खरीदने और बेचने के दामों को निकालो ।। १०४३ ॥ समान धन वाली राशि ४१ है । जिस कीमत पर अन्त में शेष वस्तुएं बेची
१०२३ ) इस नियम पर किये जानेवाले प्रश्नों में, विभिन्न मूल रकमों से किसी साधारण दर पर कोई वस्तु खरीदी हुई समझ ली जाती है। तब इस तरह खरीदी हुई वस्तु कोई अन्य साधारण दर पर बेची जाती है । व्यापार में लगाये गये धन की इकाई में बेची जाने के लिये पर्याप्त न होने के कारण जितनी वस्तु की मात्रा बच रहती है वह यहाँ पर 'शेष' कहलाती है। जिस कीमत पर यह 'शेष' बेची जाती है उसे अवशिष्ट-मूल्य ( अंत्यार्ध) कहते हैं । प्रतीक रूपसे, मानलो अ, अ + ब और अ+ब+समूलधन
। यहाँ अन्तिम ( अ+ब+ स ) ज्येष्ठधन अर्थात् सबसे बड़ा धन है । मानलो प चरमार्घ ( अन्त्यार्घ ) अथवा अवशिष्ट मूल्य है; तब इस नियमानुसार अ+ब+ स + १ = बेचने की दर; और ( अ+ब+ स + १ ) प – १ = खरीदने की दर होती हैं। यह सरलतापूर्वक दिखलाया जा सकता है कि वस्तु को बेचने की दर पर और शेष को अवशिष्ट मूल्य पर बेचने से जो रकमें प्राप्त होती हैं उनका योग प्रत्येक दशा में एकसा होता है।
यह आलोकनीय है कि खरीदने की दर, इस नियम पर आश्रित प्रश्नों में, समधन अथवा समान विक्रयोदय ( बिक्री की रकमों) के मान के समान होती है ।