Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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-६, ३०३ ]
मिश्रकव्यवहारः
इष्टाद्युत्तर गच्छघन संकलितानयनसूत्रम् - चित्यादिहातिर्मुखचयशेषघ्ना प्रचयनिघ्नचितिवर्गे । आदौ प्रचयादूने वियुता युक्ताधिके तु धनचितिका ।। ३०३ ।।
अत्रोद्देशकः
आदि द्वौ गच्छः पञ्चास्य घनचितिका ।
पश्चादिः सप्तचयो गच्छः षट् का भवेच्च घनचितिका ।। ३०४ ||
[ १६९
संकलित संकलिता नयनसूत्रम् -
द्विगुणैको पदोत्तरकृतिहतिरङ्गाहृता चयार्धयुता । आदिचयाहतियुक्ता व्येकपदन्नादिगुणितेन ॥ सैकप्रभवेन युता पददलगुणितैव चितिचितिका ।। ३०५३ ॥
जहाँ प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या को मन से चुना गया है, ऐसी समान्तर श्रेटि के पदों के घनों के योग को निकालने के लिये नियम
( दी हुई श्रेटि के सरल पदों के ) योग को प्रथम पद द्वारा गुणित कर, प्रथम पद और प्रचय के अंतर द्वारा गुणित करते हैं । तब श्रेटि के योग के वर्ग को प्रचय द्वारा गुणित करते हैं । यदि प्रथम पद प्रचय से छोटा हो, तो ऊपर प्राप्त गुणनफलों में से पहिले को दूसरे गुणनफल में से घटाया जाता । यदि प्रथम पद प्रचय से बड़ा हो, तो ऊपर प्राप्त प्रथम गुणनफल को दूसरे गुणनफल में जोड़ देते हैं । इस प्रकार घनों का इष्ट योग प्राप्त होता है ।। ३०३ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न
art का योग क्या हो सकता है, जब कि प्रथम पद ३ है, प्रचय २ है, और पदों की संख्या ५ अथवा प्रथम पद ५ है, प्रचय ७ है, और पर्दों की संख्या ६ ? ।। ३०४ ॥
ऐसी की दी हुई संख्या के पदों का योग निकालने के लिए नियम, जहाँ पद उत्तरोत्तर १ से लेकर निर्दिष्ट सीमा तक प्राकृत संख्याओं के योग हों, तथा ये सीमित संख्यायें दी हुई समान्तर श्रेडि के पद हों
समान्तर श्रेढि में दी गई श्रेढि की पदों की संख्या की दुगुनी राशि को एक द्वारा कम करते हैं, और तब प्रचय के वर्ग द्वारा गुणित करते हैं । यह गुणनफल ६ द्वारा भाजित किया जाता । प्राप्त फल प्रचय की अर्द्धराशि में जोड़ा जाता है, और साथ ही प्रथम पद और प्रचय के गुणनफल में भी जोड़ा जाता है । इस प्रकार प्राप्त योग को एक कम पदों की संख्या द्वारा गुणित किया जाता है। प्राप्त गुणनफल को प्रथम पद तथा १ में प्रथम पद जोड़ने से प्रातराशि के गुणनफल में जोड़ा जाता है। इस प्रकार प्राप्त राशि को जब श्रेटि के पदों की संख्या की अर्द्ध राशिद्वारा गुणित किया जाता है, तो ऐसी श्रेढि का इष्ट योग प्राप्त होता है, जिसके स्वपद ही निर्दिष्ट श्रेढि के योग होते हैं ।। ३०५ - ३०५२॥
(३०३ ) बीजीय रूप से,
+ श अ ( अ ब ) + श ब = समान्तर श्रेटि के पदों के घनों का योग,
जहाँ श श्रेदि के सरल पदों का योग है। सूत्र में प्रथम पद का चिह्न यदि अब हो, तो + (धन); और यदि अब हो, तो - (ऋण) होता है।
ग० सा० सं०-२२