Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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गणित सारसंग्रहः
अंशाप्तं व्येकं फलमाद्यन्यन्नं गुणोनरूपहृतम् ।। ३११३ ।।
अत्रोद्देशकः
[ ६.३११३
दीनारार्धं पञ्चसु नगरेषु चयस्त्रिभागोऽभूत । आदिस्त्रयंशः पादो गुणोत्तरं सप्त भिन्नगुणचितिका । का भवति कथय शीघ्रं यदि तेऽस्ति परिश्रमो गणिते ।। ३१३ ॥
अधिकहीनगुणसंकलितानयनसूत्रम् -
गुणचितिरन्यादिहता विपदाधिकहीन संगुणा भक्ता । व्येकगुणेनान्या फलरहिता हीनेऽधिके तु फलयुक्ता ॥ ३१४ ॥
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गुणित करते । इस क्रिया का फल दो स्थानों में लिखा जाता है । इस प्रकार प्राप्त, एक स्थान में रखे हुए, फल के अंश को फल द्वारा ही भाजित करते हैं। तब उसमें से १ घटाया जाता है। परिणामी राशि कोटि के प्रथमपद द्वारा गुणित किया जाता है, और तब दूसरे स्थान में रखी हुई राशि द्वारा गुणित किया जाता है । इस प्रकार प्राप्त गुणनफल जब १ द्वारा हासित साधारण निष्पत्ति द्वारा भाजित किया जाता है, तब का इष्ट योग उत्पन्न होता है ॥ ३११२ ॥
उदाहरणार्थ प्रश्न
५ नगरों के सम्बन्ध में, प्रथम पद रे दीनार है, और साधारण निष्पत्ति 3 । उन सबमें प्राप्त दीनारों के योग को निकालो। प्रथमपद है, साधारण निष्पत्ति है और पदों की संख्या ७ है । यदि ४ तुमने गणना में परिश्रम किया हो, तो यहाँ गुणोत्तर भिन्नीय श्रेढि का योग बतलाओ ॥३१२२- ३१३॥
गुणोत्तर श्रेढि का योग निकालने के लिये नियम, जहाँ किसी दी गई ज्ञात राशि द्वारा किसी निर्दिष्ट रीति से पद या तो बढ़ाये या घटाये जाते हों
जिसके सम्बन्ध में प्रथमपद, साधारण निष्पत्ति और पदों की संख्या दी गई है ऐसी शुद्ध गुणोतर श्रेढि के योग को दो स्थानों में लिखा जाता है। इनमें से एक को दिये गये प्रथमपद द्वारा भाजित किया जाता है । इस परिणामी भजनफल में से पदों की दी गई संख्या को घटाया जाता है। परिणामी शेष की प्रस्तावित श्रेदि के पदों में जोड़ी जानेवाली अथवा उनमें से घटाई जानेवाली दत्त राशि द्वारा गुणित किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त राशि को १ द्वारा हासित साधारण निष्पत्ति द्वारा भाजित किया जाता है । दूसरे स्थान में रखे हुए योग को इस अन्तिम परिणामी भजनफल राशि द्वारा हासित किया जाता है, जबकि श्रेठ के पदों में से दी गई राशि घटाई जाती हो । पर, यदि वह जोड़ी जाती हो, तो दूसरे स्थान में रखे हुए गुणोत्तर श्रेढि के योग को उक्त परिणामी भजनफल द्वारा बढ़ाया जाता है । प्रत्येक दशा में प्राप्तफल निर्दिष्ट श्रेढि का इष्ट योग होता है ॥ ३१४ ॥
( ३११३ ) इस नियम में, भिन्नीय साधारण निष्पत्ति का अंश हमेशा १ ले लिया जाता है । अध्याय २ की ९४ वीं गाथा तथा उसकी टिप्पणी दृष्टव्य है ।
( ३१४ ) बीजीय रूप से, ± (यथा- न ) म + (र - १ ) + श; यह निम्नलिखित रूपवाली श्रेदि
का योग है
अ, अर+म, (अर+म) र म, 1 (अर + म) र म र म इत्यादि ।