Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
View full book text
________________
६७
-६. १३७३] मिश्रकव्यवहारः
[ १२५ अत्रोद्देशकः सप्तोत्तरसप्तत्या युतं शतं योज्यमानमष्टत्रिंशत् । सैकशतद्वयभक्तं को गुणकारो भवेदत्र ॥ १३७३॥
उदाहरणार्थ प्रश्न अज्ञात गुणनखंड का भाज्य (dividend ) गुणक १७७ है। २४०, स्व में जोड़े जानेवाले अथवा घटाये जाने वाले गुणनफल से सम्बन्धित ज्ञात राशि है; पूरी राशि को २०१ द्वारा भाजित करने पर शेष कुछ नहीं रहता। यहाँ अज्ञात गुणनखण्ड कौन सा है, जिससे की दिया गया भाज्यगुणक गुणित किया जाना है ? ॥ १३७१ ॥ ३५ और अन्य राशियाँ, जो संख्या में १६ हैं, और उत्तरोत्तर मान प्रश्न है कि जब १७७ क २४° पूर्णाक है तो क के मान क्या होंगे? साधारण गुणन खंडों को निरसित
२०१ करने पर हमें ५७ ५८° पूर्णांक प्राप्त होता है। लगातार किये जाने वाले भाग की इष्ट विधि को निम्नलिखित रूप में कार्यान्वित करते हैं६७)५९०
प्रथम भजनफल को अलग कर, अन्य
भजनफल, श्रृंखला में इस प्रकार लिखे जाते हैं५९)६७(१
__ इसके नीचे १ और १ को अग्रिम
लिखा जाता है। ये अन्तिम भाजक और शेष ८)५९(७
समान होते हैं। यहाँ भी जैसा कि वल्लिका ३)८(२
कुट्टीकार में होता है, यह देखने योग्य है कि १+१३-१४
अन्तिम भाजन में कोई शेष नहीं रहता क्योंकि २)३(१
२ में १ का पूरा-पूरा भाग चला जाता है। परन्तु
चूँकि, अन्तिम शेष, श्रृंखला के लिये चाहिये, १)२(१
इसलिये वह अन्तिम भजनफल छोटा से छोटा बनाकर रख दिया जाता है, और अन्तिम
संख्या १ में यहाँ, १३ जोड़ते हैं, जो कि ८० में से ६७ का भाग देने पर प्राप्त होता है। इस प्रकार १४ प्राप्त कर, उसे श्रृंखला के अन्त में नीचे लिख दिया जाता है। इस प्रकार श्रृंखला परी हो जाती है । इस श्रृंखला के अंकों के लगातार किये गये गुणन और जोड़ द्वारा, (जैसा कि गाथा ११५ के नोट में पहिले ही समझाया जा चुका है,) हमें ३९२ प्राप्त होता है। इसे ६७ द्वारा विभाजित किया जाता है। शेष ५७ क का एक मान होता है, जब कि ८० को श्रृंखला में अंकों की संख्या अयुग्म होने के कारण ऋणात्मक ले लिया जाता है। परन्तु
जब ८० को धनात्मक लिया जाता है, तब क का मान (६७-५७) अथवा १०
होता है। यदि श्रृंखला में अंकों की संख्या युग्म होती है, तो क का प्रथम ७-३४५
निकाला हुआ मान धनात्मक अग्र सम्बन्धी होता है। यदि यह मान भाजक में से २-४७ १-१६
घटाया जाता है तो क का ऋणात्मक अग्र सम्बन्धी मान प्राप्त होता है। १-१५
इस विधि का सिद्धान्त उसी प्रकार है जैसा कि वल्लिका कुट्टीकार के सम्बन्ध में है। परन्तु, उनमें अन्तर यही है कि यहाँ श्रृंखला में दो अन्तिम अंक दूसरी विधि द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। अध्याय ६ की ११५:वी गाथा के नियम के नोट