Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
View full book text
________________
कलासवर्णव्यवहारः
अत्रोद्देशकः
शः पादोऽर्घाधं पञ्चमषष्ठखिपादहतमेकम् । पश्चार्धहृतं रूपं सषष्ठमेकं सपनमं रूपम् ॥ १३९॥ स्वीयतृतीयमुग्दलमतो निजषष्ठयुतो द्विसप्तमो ही नवांश कमपनीतदशांशकरूपमष्टमः । स्वेन नवांशकेन रहितश्चरणः स्वकपञ्चमोज्झितो ब्रूहि समस्य तान् प्रिय कलासमकोत्पलमालिकाविधौ ॥१४०॥
इति भागमातृजातिः ।
इति सारसङ्ग्रहे गणितशास्त्रे महावीराचार्यस्य कृतौ कलासवर्णो नाम द्वितीयव्यवहारस्समाप्तः ॥
-३. १४० ]
उदाहरणार्थं प्रश्न
दिया गया है कि भिन्न 3 निज के, है, है, ३ का ३, पे का है
/
[ ६७
,
"
५/२ १३, १३ भागों
से संयुक्त है । पुनः, निम के हे भाग से संयुक्त उ; दे द्वारा हासित ; प
द्वारा हासित १; निज के
भाग द्वारा हासित है; निज के पे भाग द्वारा हासित है; जो नीलकमल पुष्पों की माला ( उत्पलमालिका) के समान गुंथे हुए हैं ऐसे भिन्न सम्बन्धी नियमों के अनुसार, हे मित्र, इन्हें जोड़कर बताओ कि योगफल क्या होगा ? ॥ १३९ और १४० ॥
इस प्रकार, कलासवर्ण षड्जाति में भागमातृ जांति नामक परिच्छेद समाप्त हुआ ।
इस प्रकार, महावीराचार्य की कृति सारसंग्रह नामक गणितशास्त्र में कलासवर्ण नामक द्वितीय
व्यवहार समास हुआ ।
( १३९ और १४० ) इस गाथा में उत्पलमालिका शब्द आया है जिसका अर्थ नीलकमल पुष्पमाला होता है | गाथा की संरचना का छंद भी यही है ।