Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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गणितसारसंग्रहः
दृष्टधनाद्युत्तरतो द्विगुणत्रिगुणद्विभागत्रिभागादीष्टधनाद्युत्तरानयनसूत्रम्दृष्टविभक्तेष्टधनं द्विष्ठं तत्प्रचयताडितं प्रचयः । तत्प्रभवगुणं प्रभवो [णभागस्येष्टवित्तस्य ।।२९।। ।
अत्रोद्देशकः प्रभवस्य| रूपं प्रचयः पश्चाष्टमः समानपदम् । इच्छाधनमपि तावत्कथय सखे को मुखप्रचयौ ॥३०॥ प्रचयादादिर्द्विगुणस्त्रयोदशाष्टादशं पदं स्वेष्टम् । वित्तं तु सप्तषष्टिः षड्घनभक्ता वदादिचयौ ॥३१॥ मुंखमेकं द्वित्र्यंशः प्रचयो गच्छः समश्चतुर्नवमः। धनमिष्टं द्वाविंशतिरेकाशीत्या वदादिचयौ ॥३२॥
१ . गुणभागाद्यत्तरानयनसूत्रम् । २४ प्रचयेन । ३ M गुणभागाद्युत्तरेच्छायाः। ४ यह श्लोक M में ३१ वे श्लोक के स्थान में है तथा B में छूटा हुआ है ।
दी हुई समान्तर श्रेढि के ज्ञात योग, प्रथम पद और प्रचय से किसी श्रेदि के प्रथमपद और प्रचय निकालना जबकि इष्ट योग दी गई श्रेढि के ज्ञात योग से दुगुना, तिगुना, आधा, एक तिहाई, अथवा उसका अपवर्त्य या अंश हो
हल करने की सुविधा के लिए इष्ट योग को ज्ञात योग द्वारा विभाजित कर दो स्थानों में रखो । यह भजनफल, जब ज्ञात प्रचय द्वारा गुणित किया जाता है तब चाहा हुआ प्रचय प्राप्त होता है । और वही भजनफल, जब ज्ञात प्रथमपद द्वारा गुणित होता है तब चाहे हुए प्रथम पद को उत्पन्न करता है ॥२९॥
उदाहरणार्थ प्रश्न किसी श्रेढि का प्रथम पद ३ है, प्रचय । है और पदों की संख्या ( जो दी हुई तथा इष्ट, दोनों श्रेढियों, के लिये उभयनिष्ठ है ) ५ है। इष्ट श्रेढि तथा दी गई श्रेढि का योग अलग-अलग है है। हे मित्र ! इष्ट श्रेढि का प्रथमपद तथा प्रचय निकालो ॥३०॥ (प्रचय १ है ) और प्रथमपद प्रचय का दुगुना है; पदों की संख्या ३ है; इष्ट श्रेढि का योग २१४ है। प्रथमपद और प्रचय निकालो ॥३१॥ प्रथम पद १ है, प्रचय 3 और पदों की संख्या दोनों (दी गई श्रेढि और इष्ट श्रेढि ) के लिये उभयसाधारण है है । इष्ट श्रेढि का योग १३ है । इष्ट श्रेढि के प्रथमपद और प्रचय निकालो ॥३२॥
(२९) ८४ वीं गाथा का नोट अध्याय २ में देखिये ।
२ वय + (1-2)+२
(३३) प्रतीक रूप से, न% ---
अध्याय २ की गाथा ६९ वीं का नोट भी देखिये ।