Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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-१. ६० ]
१. संज्ञाधिकारः ऋणयोर्धनयोर्घाते भजने च फलं धनम् । ऋणं धनर्णयोस्तु स्यात्स्वर्णयोर्विवरं युतौ ॥५०॥ ऋणयोर्धनयोर्योगो यथासंख्यमृणं धनम् । शोध्यं धनमृणं राशेः ऋणं शोध्यं धनं भवेत् ॥५१॥ धनं धनर्णयोर्वर्गो मूले स्वर्णे तयोः क्रमात् । ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान्न तत्पदम् ॥५२॥
अथ संख्यासंज्ञा शंशी सोमश्च चन्द्रेन्द प्रालेयांशू रजनीकरः। श्वेतं हिमगु रूपं च मृगाङ्कश्च कलाधरः ॥५३॥ द्वि द्वे द्वावुभौ युगलयुग्मं च लोचनं द्वयम् । दृष्टिर्नेबाम्बकं द्वन्द्वमक्षिचक्षुर्नयं दृशौ ॥५४॥ हरनेत्रं पुरं लोकं त्रै (त्रि) रत्नं भुवनत्रयम् । गुणो वह्निः शिखी ज्वलनः पावकश्च हुताशनः ।।५५।। अम्बुधिर्विषधिर्वाधिः पयोधिः सागरो गतिः । जलधिर्बन्धश्चतुर्वेदः कषायः सलिलाकरः ॥५६।। इषुर्बाणं शरं शस्त्रं भूतमिन्द्रियसायकम् । पञ्च व्रतानि विषयः करणीयस्कन्तुसायकः ॥५७।। ऋतुजीवो रसो लेख्या द्रव्यं च षटुकं खरम् । कुमारवदनं वर्णं शिलीमुखपदानि च ।।५८॥ शैलमद्रियं भूध्रो नगाचलमुनिर्गिरिः । अश्वाश्विपन्नगा द्वीपं धातुर्व्यसनमातृका ।।५९।। अष्टौ तनुर्गजः कर्म वसुवारणपुष्करम् । द्विरदं दन्ती दिग्दुरितं नागानीकं करी यथा ॥६०।।
१ केवल M में ५३ से ६८ तक गाथाएँ प्राप्त हुई हैं । ये मूल में यत्र तत्र अशुद्ध हैं ।
दो ऋणात्मक या दो धनात्मक राशियाँ एक दूसरे से गुणित करने पर या भाजित होने पर ] धनात्मक राशि उत्पन्न करती हैं । परन्तु, दो राशियाँ जिनमें एक धनात्मक तथा दूसरी ऋणात्मक एक दूसरे से गुणित अथवा भाजित होते पर ऋणात्मक राशि उत्पन्न करती हैं। धनात्मक और ऋणात्मक राशि जोड़ने पर प्राप्त फल उनका अन्तर होता है ॥५०॥ दो ऋणात्मक राशियों या दो धनात्मक राशियों का योग क्रमशः ऋणात्मक और धनात्मक राशि होता है। किसी दी हुई संख्या में से धनात्मक राशि घटाने के लिये उसे ऋणात्मक कर देते हैं और ऋणात्मक राशि घटाने के लिये उसे धनात्मक कर देते हैं (ताकि दोनों क्रियाओं में केवल योग से इष्ट फल की प्राप्ति हो जावे ।) ॥५॥
धनात्मक तथा ऋणात्मक राशि का वर्ग धनात्मक होता है; और उस वर्ग राशि के वर्गमल क्रमशः धनात्मक और ऋणात्मक होते हैं। चूंकि वस्तुओं के स्वभाव (प्रकृति ) में ऋणात्मक राशि, वर्गराशि नहीं होती इसलिये उसका कोई वर्गमूल नहीं होता ॥५२॥ अगले दस सूत्रों में कुछ वस्तुओं के नाम दिये गये हैं जो वारंवार अंकों और संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिये अंकगणित संकेतना में प्रयुक्त किये
तब वह वास्तव में अपरिवर्तित नहीं रहती है। भास्कर ने ऐसे शून्य भागों को खहर कहा है और उसका मान अयथार्थ अनन्त दिया है। महावीराचार्य स्पष्टतः सोचते हैं कि शून्य द्वारा भाजन, भाजन ही नहीं । डाक्टर हीरालाल जैन ने इस पर यह सुझाव दिया है कि सम्भवतः ग्रंथकार का ऐसे भाजन से निम्नलिखित अभिप्राय हो
मानलो २० वस्तुएँ ५ व्यक्तियों में बॉटना है, तब प्रत्येक व्यक्ति को ४ वस्तुएँ उपलब्ध होंगी। यदि इन २० वस्तुओं का विभाजन ० ( शून्य ) व्यक्तियों में करना हो तब कोई व्यक्ति ही न रहने सें वह संख्या अपरिवर्तित रहेगी।
(५२) यह सूत्र महावीराचार्य की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का प्ररूपक है। इसके विषय में हम प्रस्तावना में ही संकेत कर चुके हैं। साधारणतः किसी धनात्मक राशि का वर्गमूल निकालने पर (धनात्मक एवं ऋणात्मक) दो राशियाँ उत्पन्न होती हैं, उनमें से इष्ट फल प्राप्ति के लिये धनात्मक या ऋणात्मक वर्गमूल ग्रहण करना उपयुक्त होता है। इस प्रकार ग्रंथकार द्वारा निर्दिष्ट यह नियम भी उनकी प्रतिभा का निरूपक है।