Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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-२. ४७ ] परिकर्मव्यवहारः
[१७ एकादिचयेष्टपदे पूर्व राशिं परेण संगुणयेत् । गुणितसमासत्रिगुणश्चरमेण युतो घनो भवति ॥४५॥ अन्त्यान्यस्थानकृतिः परस्परस्थानसंगुणा त्रिहता। पुनरेवं तद्योगः सर्वपदघनान्वितो वृन्दम् ॥४६।। अन्त्यस्य घनः कृतिरपि सा त्रिहतोत्सार्य शेषगणिता वा। शेषकृतिस्त्र्यन्त्यहता स्थाप्योत्सायैवमत्र विधिः ॥४७॥
१P में यह श्लोक प्राप्य नहीं है। २ M°रपि। ३ M°गो वा । ४ यह श्लोक M में छूट गया है। PK B में निम्नलिखित श्लोक पाठान्तर रूप में प्राप्य है। उपर्युक्त दो विधियों का उल्लेख इसमें भी है।
त्रिसमगुणोऽन्त्यस्य धनस्तद्वर्गस्त्रिगुणितो हतः शेषैः ।
उत्सार्य शेषकृतिरथ निष्ठा त्रिगुणा घनस्तथाग्रे वा ।। समान्तर रूप से बढ़ती हुई श्रेढि में (जिसका प्रथम पद एक है तथा प्रचय भी एक है और पदों की संख्या कोई दी गई राशि के बराबर है), प्रत्येक पिछले पद को अगले पद से गुणा कर प्राप्त गुणनफलों का योग प्राप्त कर प्राप्त योगफल को तीन से गुणित करते हैं। इस प्रकार प्राप्त गुणनफल में श्रेढि का अंतिम पद जोड़ने पर, दी हुई राशि का धन प्राप्त होता है ॥४५।। (जिन दो अथवा अधिक राशियों के योग का घन निकालना है, उन्हें अलग-अलग स्थानों में स्थापित करते हैं। ) प्रथम तथा अन्य स्थानों के वर्ग निकालकर उनमें प्रत्येक को अन्य स्थानों की राशियों से गुणित कर तिगुणा करते हैं और जोड़ देते हैं । इस प्रकार प्राप्त योगफल में सब स्थानों की राशियों में से प्रत्येक के धन को मिलाते हैं तो दत्त राशियों के योग का घनफल प्राप्त होता है। (इस सूत्र द्वारा ग्रंथकार का अभिप्राय २३६ जैसी संख्या का घनफल, उसे (२००+३०+६) रूप में परिवर्तित कर इन तीन राशियों के योग का घनफल निकालकर प्राप्त करना है।)॥४६॥ अथवा; दी गई संख्या में दाहिनी ओर से बाई ओर की गिनती में अन्तिम अंक का घन; और अन्तिम अंक के वर्ग की तिगुनी राशि को केवल एक संकेतना स्थान द्वारा दाहिनी ओर हटाया जाता है और शेष स्थानों में पाये जाने वाले अंकों द्वारा गुणित किया जाता है ; तब ऊपर की भाँति शेष स्थानों में पाये जाने वाले अंकों का वर्ग केवल एक संकेतना दाहिनी ओर हटाया जाता है और ऊपर कथित अन्तिम अंक की तिगनी राशि द्वारा उसे गुणित कर एक स्थान हटा कर रखा जाता है। ये राशियाँ इसी स्थिति में जोड़ दी जाती हैं। यह नियम यहाँ प्रयोज्य होता है ॥७॥
(४५) ३ [१४२+२४३ + ३४४ + ४४५ + ..' + अ-१४ अ} + अ = अ]
(४६) ३ अब+३ अब+अ+ब' (अ+ब) । इस नियम को दो से अधिक स्थान वाली संख्याओं के लिये प्रयोज्य बनाने के हेतु यहाँ स्पष्टतः अर्थ निकलता है कि ३ अ (ब+स)+ ३ अ (ब+स)२+अ + (ब+स) -(अ+ब+स): और यह स्पष्ट है कि कोई भी संख्या दो अन्य उपयुक्त रूप से चुनी हुई संख्याओं के योग द्वारा प्ररूपित की जा सकती है।
(४७) ग्रन्यकारद्वारा दिये गये सूत्र का अभिप्राय प्रदर्शित विधि से स्पष्ट हो जावेगामान लो १५ घन का प्राप्त करना है। इसे दो स्थानों से स्थापित करके, निरूपित रीति से घनफल
१२४३४५= निकालते हैं। सूत्र में ग्रन्थकार ने अन्तिम अंक ५ के ५२४३४१= घन के योग का कथन नहीं किया है।
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ग० सा० सं०-३