Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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१६] गणितसारसंग्रहः
[२.३७अत्रोद्देशकः एकादिनवान्तानां वर्गगतानां वदाशु मे मूलम् । ऋतुविषयलोचनानां द्रव्यमहीधेन्द्रियाणां च ॥३७॥ एकाग्रषष्टिसमधिकपश्चशतोपेतषसहस्राणाम् । षड्वर्गपञ्चपञ्चकषण्णामपि मूलमाकलय ॥३८।। द्रव्यपदार्थनयाचललेख्यालब्ध्यब्धिनिधिनयाब्धीनाम् । शशिनेन्द्रिययुगनयजीवानां चापि किं मूलम् ॥३९॥ चन्द्राब्धिगतिकषायद्रव्यर्तुहुताशनर्तुराशीनाम् । विधुलेख्येन्द्रियहिमकरमुनिगिरिशशिनां च मूलं किम् ॥४०॥ द्वादशशतस्य मूलं षण्णवतियुतस्य कथय संचिन्त्य । शतषटकस्यापि सखेपश्चकवर्गण युक्तस्य ॥४१।। अङ्केभकर्माम्बरशंकराणां सोमाक्षिवैश्वानरभास्कराणाम । चन्द्रतुंबाणाब्धिगतिद्विपानामाचक्ष्व मूलं गणकाग्रणीस्त्वम् ।।४२॥ ___इति परिकर्मविधौ चतुर्थ वर्गमूलं समाप्तम् ॥
घनः पञ्चमे घनपरिकर्मणि करणसूत्रं यथात्रिसमाहतिर्घनः स्यादिष्टोनयुतान्यराशिघातो वा। अल्पगुणितेष्टकृत्या कलितो वृन्देन चेष्टस्य ॥४॥ इष्टादिद्विगुणेष्टप्रचयेष्टपदान्वयोऽथ वेष्टकृतिः । व्येकेष्टहतैकादिद्विचयेष्टपदैक्ययुक्ता वा ॥४४॥ १P और M वर्गगतानां शीघ्रं रूपादिनवावसानराशिनाम् । मूलं कथय सखे त्वं । २ 1 नव ।
उदाहरणार्थ प्रश्न हे मित्र! मुझे शीघ्र बतलाओ कि १ से लेकर ९ तक की वर्गसंख्याओं, तथा २५६ और ५७६ के वर्गमूल क्या हैं ? ॥३७॥ ६५६१ और ६५५३६ के वर्गमूल निकालो ॥३८॥ ४२९४९६७२९६ और ६२२५२१ के वर्गमूल क्या हैं ? ॥३९॥ ६३६६४४४१ और १७७१५६१ के वर्गमूल क्या हैं ! ॥४०॥ हे मित्र ! भलीभाँति सोचकर मुझे बतलाओ कि १२९६ और ६२५ के वर्गमूल क्या हैं ? ॥४१॥ हे गणितज्ञों में अग्रणी ! ११०८८९, १२३२१ और ८४४५६१ के वर्गमूल बताओ? ॥४२॥ इस प्रकार, परिकर्म व्यवहार में, वर्गमूल नामक परिच्छेद समाप्त हुआ।
घन परिकर्म क्रियाओं में, पञ्चम घन नामक क्रिया का नियम निम्नलिखित है
कोई तीन बराबर राशियों का गुणनफल उस दत्त राशि का धन होता है । अथवा, कोई दी हुई राशि का, किसी चुनी हुई राशि को दत्त राशि में जोड़ने से प्राप्त फल का तथा चुनी हुई राशि को दत्त राशि में से घटाने से प्राप्त फल का गुणनफल प्राप्त करते हैं। इसमें, चुनी हुई राशि के वर्ग को दत्त राशि में से चुनी हुई राशि को घटाने से प्राप्त फल से गुणित करने पर प्राप्त गुणनफल और चुनी हुई राशि का धन जोड़ने पर भी दत्त राशि का धन प्राप्त होता है ॥४३॥
अथवा, जिसका प्रथम पद दी गई राशि है तथा प्रचय दी गई राशिका दुगुना है और जिसके पदों की संख्या दी हुई राशि के बराबर है, ऐसी समान्तर श्रेढि का योग दी हुई राशि के धन को उत्पन्न करता है । अथवा, जिस राशि का धन प्राप्त करना है उसके वर्ग में, दी गई राशि में से एक घटाकर प्राप्त राशि तथा दी गई राशि के बराबर जिसके पदों की संख्या है (और जिसका प्रथम पद एक है और प्रचय दो है) ऐसी समान्तर श्रेढि के योग का गुणनफल मिलाकर उस दी हुई राशि का धन प्राप्त करते हैं ॥४॥ (४३) प्रतीक रूप से यह नियम (निरूपित करने पर ) इस तरह साधित होता है:
(i) अXaxxx = अ (ii) अ (अ+ब) (अ-ब)+ब (अ-ब)+ब' =अ (४४) बीजगणित से नियम का अर्थ : (i) अ' अ+३ +५ +अ+..'अ पदों तक।
(ii) अ = अ + (अ-१)(१+३+५+७+ 'अ पदों तक)