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अमितगतिविरचिता पश्यन्तः पापतो दुःखं पापं मुञ्चन्ति सज्जनाः। जानन्तो वह्नितो दाहं वह्नौ हि प्रविशन्ति के ॥२९ सुन्दराः सुभगाः सौम्याः कूलीनाः शीलशालिनः। भवन्ति धर्मतो दक्षाः शशाङ्कयशसः स्थिराः ॥३० विरूपा दुर्भगा द्वेष्या दुःकुलाः शोलनाशिनः । जायन्ते पापतो मूढा दुर्यशोभागिनश्चलाः ॥३१ व्रजन्ति सिन्धुरारूढा धर्मतो जनपूजिताः । धावन्ति पुरतस्तेषां पापतो जननिन्दिताः ॥३२ लभन्ते वल्लभा रामा लावण्योत्पत्तिमेदिनीः । धर्मतः पापतो दोना जम्पानस्था' वहन्ति ताः ॥३३ धर्मतो ददते केचिद् द्रव्यं कल्पद्रुमा इव ।
याचन्ते पापतो नित्यं प्रसारितकराः परे ॥३४ ३१) १. दुष्टो [ष्टं] यशो भजन्तीति दुर्यशोभागिनो ऽशुभा वा। ३२) १. गजचटिताः; क गजारूढाः । ३३) १. क शिबिकारूढाः । २. क ललनाः ।
सज्जन मनुष्य पापसे उत्पन्न हुए दुखको देखकर उस पापका परित्याग करते हैं। ठीक है-अग्निसे उत्पन्न होनेवाले संतापको जानते हुए भी कौन-से ऐसे मूर्ख प्राणी हैं जो उसी अग्निके भीतर प्रवेश करते हों ? कोई भी समझदार उसके भीतर प्रवेश नहीं करता है ॥ २९ ॥
जो भी प्राणी सुन्दर, सुभग, सौम्य, कुलीन, शीलवान, चतुर, चन्द्रके समान धवल यशवाले और स्थिर देखे जाते हैं वे सब धर्मके प्रभावसे ही वैसे होते हैं ॥३०॥
इसके विपरीत जो भी प्राणी कुरूप, दुर्भग, घृणा करने योग्य, नीच, दुर्व्यसनी, मूर्ख, बदनाम और अस्थिर देखे जाते हैं वे सब पापके कारण ही वैसे होते हैं ॥३१॥
धर्मके प्रभावसे मनुष्य अन्य जनोंसे पूजित होते हुए हाथीपर सवार होकर जाया करते हैं और पापके प्रभावसे दूसरे मनुष्य जननिन्दाके पात्र बनकर उनके ( गजारूढ़ मनुष्योंके ) ही, आगे-आगे दौड़ते हैं ॥३२॥
प्राणी धर्मके प्रभावसे सौन्दर्यकी उत्पत्तिकी भूमिस्वरूप प्रिय स्त्रियोंको प्राप्त किया करते हैं और पापके प्रभावसे बेचारे वे हीन प्राणी शिबिकामें बैठी हुई उन्हीं स्त्रियोंको ढोया करते हैं ॥३३॥
कितने ही मनुष्य धर्मके प्रभावसे कल्पवृक्षोंके समान दूसरोंके लिए द्रव्य दिया करते हैं तथा इसके विपरीत दूसरे मनुष्य पापके प्रभावसे अपने हाथोंको फैलाकर याचना किया करते हैं-भीख माँगा करते हैं ॥३४।। ३१) अ भागिनश्चिरं, क °नश्चरां, इ नः खलाः । ३२) ब पापिनो जन । ३३) अ लभंति; अ दीनास्ते हवंति युगस्थिताः, ब दीना युग्यारूढा वह, इ जयानस्था। ३४) इ ददतः ।
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