Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ ३४१ धर्मपरीक्षा-२० सर्वजीवकरुणापरचित्तो यो न खाति सचित्तमशेषम् । प्रासुकाशनपरं यतिनाथास्तं सचित्तविरतं निगदन्ति ॥५७ धर्ममना दिवसे गतरागो यो न करोति वधूजनसेवाम् । तं दिनमैथुनसंगनिवृत्तं धन्यतमं निगदन्ति महिष्ठाः ॥५८ यः कटाक्षविशिखैन' वधूनां जोयते जितनरामरवगैः। मस्तिस्मरमहारिपुदर्पो ब्रह्मचारिणममुं कथयन्ति ॥५९ सर्वप्राणिध्वंसहेतुं विदित्वा योऽनारम्भं धर्मचित्तः करोति । मन्दीभूतद्वेषरागादिवृत्तिः सो ऽनारम्भः कथ्यते तथ्यबोधैः ॥६० विज्ञाय जन्तुक्षपणेप्रवीणं परिग्रहं यस्तुणवज्जहाति । विदितोद्दामेकषायशत्रुः प्रोक्तो मुनीन्द्ररपरिग्रहो ऽसौ ॥६१ ५९) १. बाणैः। ६१) १. हिंसन। २. उत्कट । करता हुआ चारों ही पोंमें-दोनों अष्टमी व दोनों चतुर्दशियोंको-निरन्तर उपवास करता है उसे बुद्धिमान् प्रोषधी-चतुर्थ प्रतिमाका धारक-मानते हैं ।।६।। जो श्रावक सब ही प्राणियोंके संरक्षणमें दत्तचित्त होकर समस्त सचित्तको-सजीव वस्तुको-नहीं खाता है उसे प्रासुक भोजनमें तत्पर रहनेवाले गणधरादि सचित्तविरतपाँचवीं प्रतिमाका धारक-कहते हैं ।।५७। जो धर्ममें मन लगाकर रागसे रहित होता हुआ दिनमें स्त्रीजनका सेवन नहीं करता है उसे महापुरुष दिनमैथुनसंगसे रहित-छठी प्रतिमाका धारक-कहते हैं जो अतिशय प्रशंसाका पात्र है ॥५८॥ ____जो मनुष्य व देवसमूहको जीतनेवाले स्त्रियोंके कटाक्षरूप बाणोंके द्वारा नहीं जीता जाता है-उनके वशीभूत नहीं होता है तथा जो कामदेवरूप प्रबल शत्रुके अभिमानको नष्ट कर चुका है-विषयभोगसे सर्वथा विरक्त हो चुका है-उसे ब्रह्मचारी--सप्तम प्रतिमाका धारक-कहा जाता है ।।५९।। जो धर्मात्मा श्रावक आरम्भको प्राणिहिंसाका कारण जानकर उसे नहीं करता है तथा जिसकी राग-द्वेषरूप प्रवृत्तियाँ मन्दताको प्राप्त हो चुकी हैं उसे ज्ञानीजन आरम्भरहितआठवीं प्रतिमाका धारक-कहते है ॥६०।। जो परिग्रहको प्राणि विघातक जानकर उसे तृणके समान छोड़ देता है तथा जिसने प्रबल कपाय रूप शत्रुको नष्ट कर दिया है वह गणधरादि महापुरुषों के द्वारा परिग्रहरहितनौवीं प्रतिमाका धारक-कहा गया है ॥६॥ ५७) अ°काशनपरो। ५८) क इ संगविरक्तम् । ५९) क मदिते । ६०) अ ड तत्त्वबोधः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409