Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 365
________________ ३४४ अमितगतिविरचिता संवेगनिर्वेदपरो ऽकषायः स्वं गहते निन्दति दोषजातम् । नित्यं विधत्ते परमेष्ठिभक्ति कृपाङ्गनालिङ्गितचित्तवृत्तिः ॥७३ सर्वत्र मैत्री कुरुते ऽभिवर्गे पवित्रचारित्रधरे प्रमोदम् ।। मध्यस्थतां यो विपरीतचेष्टे सांसारिकाचारविरक्तचित्तः ॥७४ दीनदुरापं व्रतसस्यबीज' मनीषिताशेषसुखप्रदायि । स श्लाध्यजन्मा बुधपूजनीयं सम्यक्त्वरत्नं विमलीकरोति ॥७५ सम्यक्त्वतो नास्ति परं जनीनं' सम्यक्त्वतो नास्ति परं स्वकीयम् । सम्यक्त्वतो नास्ति परं पवित्रं सम्यक्त्वतो नास्ति परं चरित्रम् ॥७६ यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ पटिष्ठो यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ वरिष्ठः । यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ कुलीनो यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ न दीनः ॥७७ ५३) १. समूहम् । ७५) १. धाना। ७६) १. जनानां हितम् । भावको पुष्ट करता है, तथा माया आदि शल्योंसे रहित अहिंसा धर्मको प्रकाशमें लाता है । तात्पर्य यह कि उक्त सम्यग्दर्शनको निर्मल रखनेके लिए सम्यग्दृष्टि जीवको निःशंकित आदि आठ अंगोंका परिपालन करना चाहिए ॥७१-७२।। उक्त सम्यग्दृष्टि क्रोधादि कषायोंसे रहित होकर संवेग ( धर्मानुराग) और निर्वेद ( संसार व भोगोंसे विरक्ति ) में तत्पर होता हुआ अपनी निन्दा करता है, अज्ञानता व प्रमादसे किये गये दोषसमूहपर पश्चात्ताप करता है, अहंदादि परमेष्ठियोंकी निरन्तर भक्ति करता है, दयारूप स्त्रीके आलिंगनका मनमें विचार रखता है-प्राणियोंके विषयमें अन्तःकरणसे दयालु रहता है, समस्त प्राणिसमूहमें मित्रताका भाव करता है, निर्मल चारित्रके धारक संयमीजनको देखकर हर्षित होता है तथा अपनेसे विरुद्ध आचरण करनेवाले प्राणीके विषयमें मध्यस्थ-राग-द्वेषबुद्धिसे रहित होता है । इस प्रकार मनमें सांसारिक प्रवृत्तियोंसे विरक्त होता हुआ वह जो सम्यग्दर्शन दीन ( कातर ) जनोंको दुर्लभ, व्रतरूप धान्यांकुरोंका बीजभूत, अभीष्ट सब प्रकारके सुखको देनेवाला और विद्वानोंसे पूजनीय है; उसे निर्मल करके अपने जन्मको सफल करता है ।।७३-७५| उस सम्यग्दर्शनको छोड़कर दूसरा कोई भी प्राणियोंका हितकारक नहीं है, सम्यक्त्व के बिना अन्य कुछ भी अपना नहीं है, सम्यक्त्वके सिवाय दूसरा कोई भी पवित्र नहीं है तथा उस सम्यक्त्वको छोड़कर और दूसरा कोई चारित्र नहीं है ।।७६।। जिसके पास वह सम्यक्त्व है वही अतिशय पटु है, वही सर्वश्रेष्ठ है, वही कुलीन है और वही दीनतासे रहित-महान् है ।।७७|| ७४) अ मध्यस्थितो, ब मध्यस्थिताम् । ७६) ब जनीयम् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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