Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 368
________________ ३४७ धर्मपरीक्षा-२० चतुर्विधं श्रावकधर्ममुज्ज्वलं मुदा दधानौ कमनीयभूषणौ। विनिन्यतुः कालमा खगाङ्गजौ परस्परप्रेमनिबद्धमानसौ ॥८८ आरुह्यानेकभूषौ स्फुरितमणिगणभ्राजमान विमानं मत्यक्षेत्रस्थसर्वप्रथितजिनगृहान्तनिविष्टाहदर्चाः । क्षित्यां तौ वन्दमानौ सततमचरतां देवराजाधिपााः कुर्वाणाः शुद्धबोधा निजहितचरितं न प्रमाद्यन्ति सन्तः ॥८९ अकृत पवनवेगो दर्शनं चन्द्रशुभ्रं दिविजमनुजपूज्यं लीलयाहवयेन । अमितगतिरिवेदं स्वस्य मासद्वयेन' प्रथितविशदकोतिः काव्यमुद्भूतदोषम् ॥९० इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां विंशः परिच्छेदः ॥२०॥ ८८) १. निर्जग्मतुः। ८९) १. प्रतिमा। ९०) १. अकृत । २. ग्रन्थम् । तत्पश्चात् रमणीय आभूषणोंसे विभूषित वे दोनों विद्याधरपुत्र मनको परस्परके स्नेहमें बाँधकर हर्षपूर्वक सम्यक्त्व, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतके भेदसे ( अथवा सल्लेखनाके साथ अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाव्रत रूप) चार प्रकारके निर्मल श्रावकधर्मको धारण करते हुए कालको बिताने लगे॥८८| अनेक आभूषणोंसे अलंकृत वे दोनों विद्याधरपुत्र चमकते हुए मणिसमूहसे सुशोभित सुन्दर विमानके ऊपर चढकर पृथिवीपर मनुष्यलोकमें स्थित समस्त जिनालयोंके भीतर विराजमान जिनप्रतिमाओंकी निरन्तर वन्दना करते हुए गमन करने लगे। वे जिनप्रतिमाएँ श्रेष्ठ इन्द्रों के द्वारा पूजी जाती थीं ( अथवा 'देवराजा विवायौं' ऐसे पाठकी सम्भावनापर 'इन्द्र के समान पूजनीय वे दोनों' ऐसा भी अर्थ हो सकता है)। ठीक है-निर्मल ज्ञानसे संयुक्त-विवेकी-जीव आत्महितरूप आचरण करते हुए कभी उसमें प्रमाद नहीं किया करते हैं ।।८२॥ विस्तारको प्राप्त हुई निर्मल कीर्तिसे संयुक्त उस पवनवेगने देवों व मनुष्योंके द्वारा पूजनीय अपने सम्यग्दर्शनको अनायास दो दिनमें ही इस प्रकार चन्द्रमाके समान धवलनिर्मल कर लिया जिस प्रकार कि विस्तृत कीर्तिसे सुशोभित अमितगति [ आचार्य ] ने अपने इस निर्दोष काव्यको-धर्मपरीक्षा प्रन्थको-अनायास दो महीने में कर लिया ।।२०।। इस प्रकार आचार्य अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें बीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२०॥ ८८) अ कालमिमो....परस्परं प्रेम । ८९) अ देवराजादिवा । ९०) अ गतिविरचितायां; अ विंशतितमः परिच्छेदः समाप्तः; ब क ड विंशतिमः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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