Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 361
________________ ३४० अमितगतिविरचिता मद्यं मांसं द्यूतं स्तेयं पापर्बीहान्यस्त्रीक्रीडा। वेश्यासंगः सप्ताप्येते नीचाचारा 'वयस्त्याज्याः॥५१ एकादशस्थानविवतंकारी यः श्रावको ऽसौ कथितः प्रकृष्टः । संसारविध्वंसनशक्तिभागी चतुर्दशस्थानगमी च योगी ॥५२ हारयष्टिरिव तापहारिणी यस्य दृष्टिरवतिष्ठते हृदि । यामिनीपतिमरीचिनिर्मला दर्शनीभवति सो ऽनधद्युतिः ॥५३ यो व्रतानि' हृदये महामना निर्मलानि विदधाति सर्वदा। दुर्लभानि भुवने धनानि वा स व्रती व्रतिभिरीरितः सुधीः ॥५४ प्रिये ऽप्रिये विद्विषि बन्धुलोके समानभावो दमितेन्द्रियाश्वः । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकी स प्रथितः प्रवीणः ॥५ सदोपवासं निरवद्यवृत्तिः करोति यः पवंचतुष्टये ऽपि । भोगोपभोगादिनिवृत्तचित्तः स प्रोषधी बुद्धिमतामभीष्टः ॥५६ ५१) १. महद्भिः । ५४) १. अणुगुणशिक्षाव्रतानि । २. गृहे। मद्य, मांस, जुआ, चोरी, पापर्धि (शिकार ), परस्त्री-सेवन और वेश्याको संगति; ये सात नीच आचरण ( दुर्व्यसन ) हैं। उत्तम जनोंको इन सबका परित्याग करना चाहिए ॥५१॥ जो श्रावक-पंचम गुणस्थानवर्ती-है वह उत्कृष्ट रूपसे ग्यारह प्रतिमाओंका धारक तथा संसारकी नाशक शक्तिसे संयुक्त साधु चौदहवें गुणस्थान तकको प्राप्त करनेवाला कहा गया है ॥५२॥ जिसके अन्तःकरणमें चन्द्रमाकी किरणके समान निर्मल व हारलताके समान सन्तापको दूर करनेवाली दृष्टि-सम्यग्दर्शन-अवस्थित है वह निर्मल दीप्तिसे संयुक्त श्रावक दर्शनी-प्रथम दर्शन प्रतिमाका धारक होता है ।।५३।। जिस प्रकार मनुष्य अपने घरमें दुर्लभ धनको धारण किया करता है उसी प्रकार जो महामनस्वी श्रावक अपने हृदयमें सदा दुर्लभ निर्मल व्रतोंको-अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रतोंको-धारण किया करता है व्रती जन उस निर्मलबुद्धि श्रावकको व्रती-द्वितीय व्रत प्रतिमाका धारक-कहते हैं ।।५४|| ___ जो श्रावक अपनी इन्द्रियोंरूप घोड़ोंको स्वाधीन करके इष्ट और अनिष्ट वस्तु तथा शत्र व मित्र जनके विषयमें समताभावको धारण करता हुआ तीनों सन्ध्यासमयोंमें सामायिकको करता है वह प्रवीण गणधरादिकोंके द्वारा सामायिकी-तृतीय सामायिक प्रतिमाका धारक-प्रसिद्ध किया गया है ।।५५।। जो निर्दोष आचरण करनेवाला श्रावक भोग व उपभोगरूप वस्तुओंकी इच्छा न ५१) अ चय॑स्त्याज्याः; ड वज्यस्त्याज्याः । ५२) अ क इ कारि; अ प्रविष्ट: for प्रकृष्टः; अ वि for च। ५३) अनघस्रुतिः । ५४) अ ड इ भवने । ५५) अ इन्द्रियाश्वम् । ५६) अमभीष्टम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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