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धर्मपरीक्षा - २०
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यो विजिताक्षस्त्यजति महात्मा पर्वणि नित्यं निधुवनकर्म । ध्वंसिततीव्रस्मरशरगवंः सर्वसुराच्य भवति स शक्रः ॥४६ निरस्य भूरिद्रविणं पुरातनं विधीयते येन निकेतने' नवम् क्षणेन दारिद्रयमवार्यमूजितं विचक्षणैद्यूतमिदं निरस्यते ॥४७ बान्धवेस्त्यज्यते कोविदैनिन्द्यते दुर्जनैर्हस्यते सज्जनैः शोच्यते । बध्यते रुध्यते ताडयते पीड्यते द्यूतकारः परैद्यूतकारैर्नरैः ॥४८ धर्मकामधननाशपटिष्ठ कृष्णकर्मपरिवर्धननिष्ठम् । द्यूततो न परमस्ति निकृष्ट' शीलशौच समधीभिरनिष्टम् ॥४९ मातुरपास्यति' वस्त्रमर्यो' पूज्यतमं सकलस्य जनस्य ।
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कर्म करोति निराकृतलज्जः किं कितवो न परं स विनिन्द्यः ॥५०
४६) १. मैथुनकर्म । २. इन्द्रः ।
४७) १. गृहे । २. त्यज्यते ।
४९) १. दुष्टम् ।
५०) १. मुष्णाति । २. द्यूतकारः । ३. द्यूतकारः ।
सुख उत्पन्न करती है, परन्तु यदि मूर्खतावश उसका अतिशय आसक्तिपूर्वक निरन्तर सेवन किया जाता है तो वह क्षयादि रोगोंसे उत्पन्न होनेवाली पीड़ाका भी कारण होती है || ४५||
जो जितेन्द्रिय महापुरुष अष्टमी व चतुर्दशी आदि पर्व के समय सदा मैथुन क्रियाका परित्याग करता है वह कामदेव के बाणोंकी तीक्ष्णता के प्रभावको नष्ट कर देनेके कारण इन्द्र होकर सब देवों द्वारा पूजा जाता है ||४६ ||
जो जुआका व्यसन पूर्वके बहुत-से धनको नष्ट करके घर में अनिवार्य नवीन प्रबल दरिद्रताको क्षण-भर में लाकर उपस्थित कर देता है उसका विचारशील मनुष्य सदाके लिए परित्याग किया करते हैं ||४७||
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जुवारी मनुष्यका बन्धुजन परित्याग किया करते हैं, विद्वान् जन उसकी निन्दा किया करते हैं, दुष्ट जन उसका परिहास किया करते हैं, सत्पुरुषोंको उसके विषय में पश्चात्ताप हुआ करता है; तथा अन्य जुवारी जन उसको बाँधते, रोकते, मारते और पीड़ित किया करते हैं ||४८ ||
जुआ चूँकि धर्म, काम और धनके नष्ट करने में दक्ष होकर समस्त कष्टोंके बढ़ाने में तत्पर रहता है; तथा शील, शौच व शान्तिमें बुद्धि रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिए वह अभीष्ट नहीं है; इसीलिए जुआसे निकृष्ट ( घृणास्पद ) अन्य कोई वस्तु नहीं है ||४९ ॥
जो निर्बुद्ध जुवारी मनुष्य समस्त जनोंको अत्यन्त पूज्य माताके वस्त्रका अपहरण करता है वह भला निर्लज्ज होकर और कौन-से दूसरे निन्द्य कार्यको नहीं कर सकता है ? अर्थात् वह अनेक निन्द्य कार्योंको किया करता है ॥५०॥
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४७) अ निधीयते । ४८) ड बध्यते ताड्यते पीड्यते ऽहर्निशम् । ४९ ) अ ब कृत्स्नकष्टपरिं । ५० ) अ इ दुष्ट for पूज्य; ड इ स विनिन्द्यम् ।
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