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अमितगतिविरचिता लाघवं जन्यते येन यन्म्लेच्छरपि गीते। तदसत्यं वचो वाच्यं न कदाचिदुपासकैः ॥४८ क्षेत्रे ग्रामे खले घोषे पत्तने कानने ऽध्वनि । विस्मृतं पतितं नष्टं निहितं स्थापितं स्थितम् ॥४९ अदत्तं न परद्रव्यं स्वीकुर्वन्ति महाधियः। निर्माल्यमिव पश्यन्तः परतापविभोरवः ॥५० [युग्मम्] अर्था बहिश्चराःप्राणाः सर्वव्यापारकारिणः। म्रियन्ते सहसा मास्तेषां व्यपगमे सति ॥५१ धर्मो बन्धुः पिता पुत्रः कान्तिः कोतिर्मतिः प्रिया। मुषिता मुष्णता द्रव्यं 'समस्ताः सन्ति शर्मदाः ॥५२ एकस्यैकक्षणं दुःखं जायते मरणे सति ।
आजन्म सकुटुम्बस्य पुंसो द्रव्यविलोपने ॥५३ ४८) १. निन्द्यते। ५२) १. एते।
जिस असत्य वचनके भाषणसे लघुता प्रकट होती है तथा जिसकी म्लेच्छ जन भी निन्दा किया करते हैं ऐसे उस निकृष्ट असत्य वचनका भाषण श्रावकोंको कभी भी नहीं करना चाहिए ॥४८॥
जो निर्मल बुद्धिके धारक महापुरुष पापकार्यसे डरते हैं वे खेत, गाँव, खलिहान, गोष्ठ (गायोंके रहनेका स्थान), नगर, वन और मार्गमें भूले हुए, गिरे हुए, नष्ट हुए, रखे हुए, रखवाये हुए अथवा अवस्थानको प्राप्त हुए दूसरेके द्रव्यको-धनादिको-निर्माल्यके समान अग्राह्य जानकर उसे बिना दिये कभी स्वीकार नहीं करते हैं ॥४९-५०॥
सब ही व्यवहारको सिद्ध करनेवाले धन-सुवर्ण, चाँदी, धान्य एवं गवादिमनुष्यों के बाह्यमें संचार करनेवाले प्राणोंके समान हैं। इसका कारण यह है कि उनका विनाश होनेपर मनुष्य अकस्मात् मरणको प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥
जो दूसरेके धनका अपहरण करता है वह उसके धर्म, बन्धु, पिता, पुत्र, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि और प्रिय पत्नीका अपहरण करता है; ऐसा समझना चाहिए। कारण यह कि वे सब उस धनके रहनेपर ही सब कुछ-सब प्रकारके सुखको-दिया करते हैं, बिना धनके वे भी दुखके कारण हो जाते हैं ॥५२॥
मनुष्यको किसी एकका मरण हो जानेपर एक क्षणके लिए कुछ थोड़े ही कालके लिए-दुख होता है, परन्तु अन्यके द्वारा धनका अपहरण किये जानेपर वह जीवनपर्यन्त सब कुटुम्बके साथ दुखी रहता है ॥५३॥
५०) ब पश्यन्ति । ५२) अ सन्ति सर्वदा।
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