Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 355
________________ अमितगतिविरचिता फलं वदन्ति सर्वत्र प्रधानं नानुषङ्गिकम् । बुधैः स्मृतं फलं धान्यं पलालं न हि कर्षणे ॥२१ स्वविभूत्यनुसारेण पूर्णे सति विधिद्वये। उद्योतनं विधातव्यं संपूर्णफलकाक्षिभिः ॥२२ बुधैरुद्दयोतनाभावे कर्तव्यो द्विगुणो विधिः'। विधानापूर्णतायां हि विधेयं पूर्यते कुतः ॥२३ अभयाहारभैषज्यशास्त्रदानविभेवतः। दानं चतुर्विधं ज्ञेयं संसारोन्मूलनक्षमम् ॥२४ सर्वोऽपि दृश्यते प्राणी नित्यं प्राणप्रियो यतः। प्राणत्राणं ततः श्रेष्ठं जायते ऽखिलदानतः ॥२५ २१) १. विधानकार्येषु । २. मोक्षम् । ३. अमुख्यम्, अहो लौकिक । ४. कथितम् । २३) १. व्रत। को प्रदान करते हैं उनका और दूसरा कौन-सा फल कहा जा सकता है ? अर्थात् उनका वह सर्वोत्कृष्ट फल है, स्वर्गादिरूप फल तो आनुषंगिक है जिनका निर्देश नहीं किया गया है ॥२०॥ सर्वत्र व्रतादिकका जो फल कहा जाता है वह प्रधान फल ही कहा जाता है, उनका आनुषंगिक फल नहीं कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप विद्वान् जन कृषिका फल धान्यकी प्राप्ति ही मानते हैं, पलाल (धान्यकणसे रहित उसके सूखे तृण ) को वे उस कृषिका फल नहीं मानते हैं ॥२१॥ उक्त दोनों विधियोंके पूर्ण हो जानेपर जो जन उनके सम्पूर्ण फलकी अभिलाषा रखते हैं उन्हें अपने वैभवके अनुसार उनका उद्यापन करना चाहिए ॥२२॥ ___ जो उनका उद्यापन करनेमें असमर्थ होते हैं उन विद्वानोंको उनका परिपालन निर्दिष्ट समयसे दूने समय तक करना चाहिए । तभी उनकी विधि पूर्णताको प्राप्त हो सकती है। विधिकी पूर्णता न होनेपर विधेय (व्रत ) की पूर्णता कहाँसे हो सकती है ? नहीं हो सकती ॥२३॥ __ जो दान अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदानके भेदसे चार प्रकारका है उसे भी देना चाहिए। क्योंकि, वह जन्म-मरणरूप संसारके नष्ट करने में सर्वथा समर्थ है ॥२४॥ लोकमें देखा जाता है कि सब ही प्राणी अपने प्राणोंसे सदा अनुराग करते हैं--वे उन्हें कभी भी नष्ट नहीं होने देना चाहते हैं। इसीलिए सब दानोंमें प्राणियोंके प्राणोंका संरक्षण-अभयदान-श्रेष्ठ है ॥२५।। २१) ड सर्वेषां for सर्वत्र, अ पललम् । २२) अ विधिव्यये । २४) अ क ड इ देयं for ज्ञेयम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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