Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 357
________________ अमितगतिविरचिता कान्तिकोतिबलवीर्ययशःश्रीसिद्धिबुद्धिशमसंयमधर्माः । देहिनां वितरताशनदानं शर्मदा जगति सन्ति वितीर्णाः ॥३२ याशने ऽस्ति तनुरक्षणशक्तिः सा न हेममणिरत्नगणानाम् । येन तेन वितरन्ति यतिभ्यस्तानपास्य कृतिनो ऽशनदानम् ॥३३ शक्नोति कतुन तपस्तपस्वी विद्धो यतो व्याधिभिरुनदोषैः । भैषज्यदानं विधिना वितीयं ततः सदा व्याधिविघातकारि ।।३४ यो भैषज्यं व्याधिविध्वंसि दत्ते व्याध्यानां योगिनां भक्तियुक्तः । नासौ पोड्यः श्लेष्मपित्तानिलोत्थैयाधिवातैः पावकैम्बुिमग्नः ॥३५ द्वेषरागमदमत्सरमूछ क्रोधलोभभयनाशसमर्थम् । सिद्धिसद्मपथदशि वितीय शास्त्रमव्ययसुखाय यतिभ्यः ।।३६ ३३) १. हेमादीन् । २. विहाय । ३४) १. व्याप्तपीडितः । ३६) १. परिग्रह। M ____जो सत्पुरुष प्राणियोंको भोजन देता है वह लोकमें जो कान्ति, कीर्ति, बल, वीर्य, यश, लक्ष्मी, सिद्धि, बुद्धि, शान्ति, संयम और धर्म आदि सुखप्रद पदार्थ हैं उन सभीको देता है; ऐसा समझना चाहिए ॥३२॥ जो शरीरसंरक्षणकी शक्ति भोजनमें है वह सुवर्ण, मणि और रत्नसमूहमें सम्भव नहीं है। इसीलिए दूरदर्शी विद्वज्जन मुनियोंके लिए उपर्युक्त सुवर्णादिको न देकर आहारदानको दिया करते हैं ।।३३॥ तीव्र दोषोंसे परिपूर्ण रोगोंसे बेधा गया-खेदको प्राप्त हुआ-साधु चूँकि तप करने में समर्थ नहीं होता है, अतएव उसे उन रोगोंको नष्ट करनेवाले औषधदानको विधिपूर्वक निरन्तर देना चाहिए ॥३४॥ जो श्रावक रोगसे पीड़ित मुनिजनोंको भक्तिपूर्वक उस रोगकी नाशक औषधिको देता है वह कभी कफ, पित्त और वात दोषसे उत्पन्न होनेवाले रोगसमूहसे इस प्रकार पीड़ित नहीं होता जिस प्रकार कि जलमें डूबा हुआ व्यक्ति कभी अग्निके सन्तापसे पीड़ित नहीं होता है ।॥३५॥ ___ जो शास्त्र द्वेष, राग, मद, मात्सर्य, ममता, क्रोध, लोभ और भयके नष्ट करने में समर्थ होकर मोक्षरूप महलके मार्गको दिखलाता है उसे अविनश्वर सुख की प्राप्तिके निमित्त मुनिजनोंको प्रदान करना चाहिए ॥३६।। ३५) अ वह्निभिर्वाप्यमग्नः ; ब वह्निभिर्वा । ३२) अशनं सता शर्मदा। ३४) क इ विद्धस्ततो। ३६) अ ब वितार्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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