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अमितगतिविरचिता
विवेकः संयमः क्षान्तिः सत्यं शौचं दया दमः। सर्वे' मद्येन सूद्यन्ते पावकेनेव पादपाः ॥३५ मद्यतो न परं कष्टं मद्यतो न परं तमः। मद्यतो न परं निन्द्यं मद्यतो न परं विषम् ॥३६ तं तं नमति निर्लज्जो यं यमने विलोकते। रोदिति भ्रमति स्तौति रौति गायति नृत्यति ॥३७ मद्यं मलमशेषाणां दोषाणां जायते यतः। अपथ्यमिव रोगाणां परित्याज्यं ततः सदा ॥३८ अनेकजीवघातोत्थं म्लेच्छलालाविमिश्रितम् । स्वाद्यते न मधु त्रेधा पापदायि दयालुभिः ॥३९ यच्चित्रप्राणिसंकीर्णे प्लोषिते ग्रामसप्तके ।
माक्षिकस्य तदेकत्र कल्मषं' भक्षिते कणे ॥४० ३५) १. एते सर्वे पदार्थाः। ४०) १. पापम्।
जिस प्रकार अग्निके द्वारा वनके सब वृक्ष नष्ट कर दिये जाते हैं उसी प्रकार मद्यके द्वारा आत्माके विवेक, संयम, क्षमा, सत्य, शौच, दया और इन्द्रियनिग्रह आदि सब ही उत्तम गुण नष्ट कर दिये जाते हैं ॥३५॥
मद्यको छोड़कर और दूसरी कोई वस्तु प्राणीके लिए न कष्टदायक है, न अज्ञानरूप अन्धकारको बढ़ाने वाली है, न घृणास्पद है और न प्राणघातक विष है। तात्पर्य यह कि लोकमें प्राणीके लिए मद्य ही एक अधिक दुखदायक, अविवेकका बढ़ानेवाला, निन्दनीय और विषके समान भयंकर है ॥३६॥
मद्यपायी मनुष्य लज्जारहित होकर आगे जिस-जिसको देखता है उस-उसको नमस्कार करता है, रोता है, इधर-उधर घूमता-फिरता है, जिस किसीकी भी स्तुति करता है, शब्द करता है, गाता है और नाचता है ॥३७॥
जिस प्रकार अपथ्य-विरुद्ध पदार्थोंका सेवन-रोगोंका प्रमुख कारण है उसी प्रकार मद्य चूंकि समस्त ही दोषोंका प्रमुख कारण है, अतएव उसका सर्वदाके लिए परित्याग करना चाहिए ।।३।।
मधु (शहद ) चूँकि अनेक जीवोंके असंख्य मधुमक्खियोंके-घातसे उत्पन्न होकर भील जनोंकी लारसे संयुक्त होता है-उनके द्वारा जूठा किया जाता है-इसीलिए दयालु जन कभी उस पापप्रद मधुका मन, वचन व कायसे स्वाद नहीं लेते हैं-वे उसके सेवनका सर्वथा परित्याग किया करते हैं ॥३९॥
अनेक प्रकारके प्राणियोंसे व्याप्त सात गाँवोंके जलानेपर जो पाप उत्पन्न होता है उतना पाप उस मधुके एक ही कणका भक्षण करनेपर उत्पन्न होता है ॥४०॥ ३५) क मद्येन दह्यन्ते । ३८) व जायते ततः। ३९) अ म्लेच्छम्; ब ड इ खाद्यते। ४०) अ प्लोषते; अड इ ये चित्र ; अ भक्ष्यते क्षणे ।
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