Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 351
________________ ३३० अमितगतिविरचिता श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषमुषां साधोर्गुणाशंसिनी नत्वा केवलिपादपङ्कजयुगं मामरेन्द्राचितम् । आत्मानं व्रतरत्नभूषितमसौ चक्रे विशुद्धाशयो भव्याः प्राप्य यौगिरोऽमितगतेयाः कथं कुर्वते ॥१०१ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायामेकोनविंशतितमः परिच्छेदः ॥१९॥ इस प्रकार विशुद्ध अभिप्रायवाले उस पवनवेगने समस्त पापमलको दूर करनेवाले उन जिनमति मुनिके व्रतविषयक उपदेशको सुनकर मनुष्यों व देवोंसे पूजित केवली जिनके दोनों चरणकमलोंको नमस्कार करते हुए अपनेको व्रतरूप रत्नसे विभूषित कर लियाश्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया। ठीक है-भव्य जन अपरिमित ज्ञानके धारक मुनिके उपदेशको पाकर भला उसे व्यर्थ कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते-वे उसे सफल ही किया करते हैं ।।१०१॥ इस प्रकार आचार्य अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें उन्नीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१९॥ १.१) अ कल्मषमुषं, बमुषः ; ब क साधोत्रता; अशंसिनीनत्वा ; ड इ भव्यः ; ब प्रार्थयते for प्राप्य यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409