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धर्मपरीक्षा-१९ इदं व्रतं द्वादशभेदभिन्नं यः श्रावकीयं जिननाथदृष्टम् ।। करोति संसारनिपातभीतः प्रयाति कल्याणमसौ समस्तम् ॥९७ भ्रनेत्रहुंकारकराङ्गलोभिद्धि प्रवृत्तां परिवयं संज्ञाम् । विधाय मौनं व्रतवृद्धिकारि करोति भुक्ति विजिताक्षवृत्तिः ॥९८ ये देवमाचितपादपद्माः पञ्चानवद्यौः परमेष्ठिनस्ते। नैवेद्यगन्धाक्षतधूपदीपप्रसूनमालादिभिरर्चनीयाः ॥९९ इदं प्रयत्नाग्निहितातिचारं ये पालयन्ते व्रतमर्चनीयम् । निविश्य लक्ष्मों मनुजामराणां ते यान्ति निर्वाणमपास्तपापाः ॥१००
९७) १. पतनात् । ९९) १. निष्पापाः। १००) १. भुक्त्वा ।
मनुष्य-चक्रवर्ती आदि-और देवोंके सुखोंको भोगकर त्रिगुणित सात (७४३ =२१) भवोंके भीतर मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥१६॥
जो गृहस्थ संसारपरिभ्रमणसे भयभीत होकर जिनेन्द्रके द्वारा प्रत्यक्ष देखे गयेउनके द्वारा उपदिष्ट-श्रावक सम्बन्धी इस बारह प्रकारके व्रतका परिपालन करता है वह सब प्रकारके कल्याणको प्राप्त होता है-वह विविध प्रकारके सांसारिक सुखको भोगकर अन्तमें मुक्तिसुखको भी प्राप्त कर लेता है ।।९७।।
अपने व्रतोंकी वृद्धिको करनेवाला गृहस्थ इन्द्रियोंके व्यापारको जीतकर भ्रकुटि, नेत्र, हुंकार-हूं-हूं शब्द-और हाथकी अँगुलिके द्वारा लोलुपतासे प्रवृत्त होनेवाले संकेतको छोड़ता हुआ मौनपूर्वक भोजनको करता है ॥९८॥
जिनके चरणकमल देवों व मनुष्योंके द्वारा पूजे गये हैं ऐसे जो निर्दोष अहंदादि पाँच परमेष्ठी हैं उनकी श्रावकको नैवेद्य, गन्ध, अक्षत, दीप, धूप और पुष्पमाला आदिके द्वारा पूजा करनी चाहिए ॥१९॥
जो गृहस्थ प्रयत्नपूर्वक निरतिचार इस पूजनीय देशव्रतका-श्रावकधर्मका-परिपालन करते हैं वे मनुष्यों व देवोंके वैभवको भोगकर अन्तमें समस्त पापमलसे रहित होते हुए मुक्तिको प्राप्त करते हैं ॥१००।।
९९) अ क ड दीपधूप ।
९८) अ गृद्धिप्रवृत्ताम्....परिचर्य ; ब ड इ विहाय मौनम् ; इ मुक्तिम् । १००) अ ब क इ सयत्नान्नि'; अ विभाति for ते यान्ति ।
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