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अमितगतिविरचिता
त्रिदशाः किंकरास्तस्य हस्ते तस्यामरद्रुमाः । निधयो मन्दिरे तस्य संतोषो यस्य निश्चलः ॥७१ लब्धाशेषनिधानोऽपि स दरिद्रः स दुःखितः । संतोष हृदये यस्य नास्ति कल्याणकारकः ॥७२ दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विनिवृत्तिर्गुणव्रतम् । त्रिविधं श्रावस्त्रेधा पालनीयं शिवार्थिभिः ॥ ७३ traft काष्ठा विधाय विधिनावधिम् । न ततः परतो याति प्रथमं तद् गुणव्रतम् ॥७४ त्रसस्थावरजीवानां निशुम्भननिवृत्तितः । तत्र गेहस्थितस्यापि परतो ऽस्ति महाव्रतम् ॥७५ त्रैलोक्यं लङ्घमानस्य तीव्रलोभविभावसोः । अकारि स्खलनं तेन येन सा नियता कृता ॥७६
जिसके अन्तःकरण में अटल सन्तोष अवस्थित है उसके देव सेवक बन जाते हैं, कल्पवृक्ष उसके हाथमें अवस्थितके समान हो जाते हैं तथा निधियाँ उसके भवन में निवास करने लगती हैं ॥ ७१ ॥
इसके विपरीत जिसके हृदय में वह कल्याणका कारणभूत सन्तोष नहीं है वह समस्त भण्डार (खजाना) को पाकर भी दरिद्र ( निर्धन जैसा ) व अतिशय दुखी ही बना रहता है ॥७२॥
मोक्षकी इच्छा करनेवाले श्रावकों को दिशा, देश और अनर्थदण्डसे विरत होने रूप तीन प्रकारके गुणव्रतका तीन प्रकारसे - मन, वचन व कायके द्वारा - पालन करना चाहिए । अभिप्राय यह है कि पूर्वादिक दिशाओंमें जो जीवन पर्यन्त जाने-आनेका नियम किया जाता है कि मैं अमुक दिशा में अमुक स्थान तक ही जाऊँगा, उससे आगे नहीं जाऊँगा; इसका नाम दिखत है । उक्त दिव्रत में स्वीकार की गयी मर्यादाके भीतर भी उसे संकुचित करके कुछ नियमित समय के लिए जो अल्प प्रमाणमें जाने-आनेका नियम स्वीकार किया जाता है उसे देश के नामसे कहा जाता है। जिन कार्यों में निरर्थक प्राणियोंका विघात हुआ करता है उनका परित्याग करना, यह अनर्थदण्डव्रत नामका तीसरा गुणव्रत है | श्रावकों को पाँच अणुव्रतोंके साथ इन तीन गुणव्रतोंका भी निरतिचार पालन करना चाहिए || ७३ ||
जो पूर्वादिक चार दिशा, ईशानादि चार विदिशा तथा नीचे व ऊपर ; इस प्रकार दस दिशाओं में आगमोक्त विधिके अनुसार मर्यादाको स्वीकार करके उसके आगे नहीं जाता है, यह दिव्रत नामका प्रथम गुणत्रत है || ७४ ॥
गृहीत मर्यादाके बाहर त्रस और स्थावर जीवोंके घातकी सर्वथा निवृत्ति हो जाने के कारण घर के भीतर स्थित श्रावकके भी वहाँ अहिंसामहाव्रत जैसा हो जाता है ||७५ ||
जिस महापुरुषने आशाको नियन्त्रित कर लिया है उसने तीनों लोकोंको अतिक्रान्त करनेवाली तीव्र लोभरूप अग्निके प्रसारको रोक दिया है, यह समझना चाहिए ||१६||
७२) अ कल्याणकारणम् । ७४) अ यो दशस्वपि ... विधिना विधिः । ७६) इ येन तेन ।
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