Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 347
________________ ३२६ अमितगतिविरचिता पाशं दण्डं विषं शस्त्रं हलं रज्जु हुताशनम् । धात्री लाक्षामयो' नीली नान्येभ्यो ददते बुधाः ॥८१ संधानं पुष्पितं विद्धं कथितं जन्तुसंकुलम् । वर्जयन्ति सदाहारं करुणापरमानसाः ॥८२ शिक्षाव्रतं चतुर्भेवं सामायिकमुपोषितम्। भोगोपभोगसंख्यानं संविभागो ऽशने ऽतिथेः ॥८३ जीविते मरणे सौख्ये दुःखे योगवियोगयोः। समानमानसैः कायं सामायिकमतन्द्रितैः ॥८४ यासना' द्वादशावर्ता चतुर्विधशिरोन्नतिः । त्रिकालवन्दना कार्या परव्यापारजितैः ॥८५ मुक्तभोगोपभोगेन पापकर्मविमोचिना। उपवासः सदा भक्त्या कार्यः पर्वचतुष्टये ॥८६ ८१) १. धाउडीनां फूल । २. लोह । ८३) १. उपवास। ८४) १. पञ्चेन्द्रियमनोनिरोधनैः। ८५) १. पद्मासनम् । विद्वान् जन जाल, लाठी, विष, शस्त्र, हल, रस्सी, अग्नि, पृथिवी ( अथवा आमलकी-वनस्पतिविशेष), लाख, लोहा और नीली; इत्यादि परबाधाकर वस्तुओंको दूसरोंके लिए नहीं दिया करते हैं ॥८॥ इसके अतिरिक्त जिनके हृदयमें दयाभाव विद्यमान है वे श्रावक अचार तथा घुने हुए, सड़े-गले एवं जीवोंसे व्याप्त आहारका परित्याग किया करते हैं ।।८।। सामायिक, उपोषित (प्रोषधोपवास), भोगोपभोगपरिसंख्यान और भोजनमें अतिथिके लिए संविभाग–अतिथिसंविभाग; इस प्रकार शिक्षाबतके चार भेद हैं ।।८३।। श्रावकोंको आलस्यसे रहित होकर जीवन व मरणमें, सुख व दुखमें तथा संयोग व वियोगमें मनमें समताभावका आश्रय लेते हुए राग-द्वेषके परित्यागपूर्वक-सामायिकको करना चाहिए ।।८४॥ सामायिकमें दूसरे सब ही व्यापारोंका परित्याग करके पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग दोनोंमें-से किसी एक आसनसे अवस्थित होकर प्रत्येक दिशामें तीन-तीनके क्रमसे मन, वचन व कायके संयमनस्वरूप शुभ योगोंकी प्रवृत्तिरूप बारह आवर्त (दोनों हाथोंको जोड़कर अग्रिम भागकी ओरसे चक्राकार घुमाना), चार शिरोनतियाँ (शिरसा नमस्कार) और तीनों सन्ध्याकालोंमें वन्दना करना चाहिए ।।८५॥ भोग और उपभोगके परित्यागपूर्वक सब ही पाप क्रियाओंको छोड़कर श्रावकको दो अष्टमी व दोनों चतुर्दशीरूप चारों पोंमें निरन्तर भक्तिके साथ उपवासको भी करना चाहिए ॥८६॥ ८२) अ कुथितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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