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सूत्रकण्ठास्ततो ऽवोचन् यद्यसंभाव्यमीदृशम् । दृष्टं वेदे पुराणे वा तदा भद्र निगद्यताम् ॥१ सर्वथास्माकमग्राह्यं पुराणं शास्त्रमीदृशम् । न न्यायनिपुणाः कापि न्यायहीनं हि गृह्णते ॥२ ऋषिरूपधरो ऽवादीत्ततः खेचरनन्दनः । निवेदयामि जानामि परं विप्रा बिभेम्यहम् ॥३ स्ववृत्ते ऽपि मया ख्याते रुष्टा यूयमिति द्विजाः । कि न वेदपुराणार्थ कोपिष्यथ पुनर्मम ॥४ सत्रकण्ठस्ततोऽभाषि त्वं भाषस्वाविशतिः ।
त्वद्वाक्यसदृशं शास्त्रं त्यक्ष्यामो निश्चितं वयम् ॥५ ५) १. त्यजामः।
मनोवेगके इस प्रकार कहनेपर यज्ञोपवीतके धारक वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! यदि तुमने वेद अथवा पुराणमें इस प्रकारकी असम्भव बात कहीं देखी हो तो तुम उसे बतलाओ ॥१॥
यदि ऐसे असत्यका पोपक कोई पुराण अथवा शास्त्र है तो वह हमारे लिए ग्रहण करनेके योग्य नहीं है-उसे हम न मानेंगे। कारण कि न्यायनिपुण-विचारशील-मनुष्य कहींपर भी न्यायहीन-युक्तिसे न सिद्ध हो सकनेवाले-वचनको नहीं ग्रहण किया करते हैं ॥२॥
यह सुनकर साधुके वेपका धारक वह विद्याधरकुमार बोला कि हे विप्रो! मैं ऐसे पुराण व शास्त्रको जानता हूँ और उसके विषयमें निवेदन भी कर सकता हूँ, परन्तु इसके लिए मैं डरता हूँ । कारण इसका यह है कि जब मैंने केवल अपने तपस्वी होनेका ही वृत्तान्त कहा तब तो आप लोग इतने रुष्ट हुए हैं, फिर भला जब मैं वैसे वेद या पुराणके विषयमें कुछ निवेदन करूँगा तब आप लोग मेरे ऊपर क्या कुपित नहीं होंगे? तब तो आप मेरे ऊपर अतिशय कुपित होंगे ॥३-४।।
इसपर उन ब्राह्मणोंने कहा कि तुम निर्भय होकर कहो। यदि तुम्हारे द्वारा कहे गये असत्य वाक्योंके समान कोई शास्त्र है तो उसका हम निश्चित ही परित्याग कर देगे ।।५।।
२) अ निगृह्णते । ४) ड इ यूयमपि । ५) ब भाषस्व वि....त्वद्वाक्यश्रवणं ।
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