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धर्मं परीक्षा - १८
समस्तलब्धयो लब्धा भ्रमता जन्मसागरे । न लब्धिश्चतुरङ्गस्य मित्रैकापि शरीरिणा ॥७९ देशो जातिः कुलं रूपं पूर्णाक्षत्वमरोगिता । जीवितं दुर्लभं जन्तोर्देशनाश्रवणं ग्रहः ॥८० एषु सर्वेषु लब्धेषु जन्मद्रुम कुठारिकाम् । लभते दुःखतो बोधि सिद्धिसौध प्रवेशिकाम् ॥८१ च्छुभं दृश्यते वाक्यं तज्जैनं परदर्शने । मौक्तिकं हि यदन्यत्र तदब्धौ जायते ऽखिलम् ॥८२ जिनेन्द्रवचनं मुक्त्वा नापरं पापनोदनम् ' । भिद्यते भास्करेणैव दुर्भेदं शावरं तमः ॥८३ आदिभूतस्य धर्मस्य जैनेन्द्रस्य महीयसः । अपरे नाशक धर्माः सस्यस्य शलभा इव ॥८४
८०) १. धर्मोपदेश ।
८२) १. क्रिया आचारपढ्य ।
८३) १. स्फेटनम् ।
हे मित्र ! इस प्राणीने संसाररूप समुद्र में गोते खाते हुए अन्य सब लब्धियों को प्राप्त किया है, परन्तु उसे उन चारोंमें से किसी एककी भी प्राप्ति नहीं हो सकी ||७९||
प्राणी के लिए योग्य देश, जाति, कुल, रूप, इन्द्रियोंकी परिपूर्णता, नीरोगता, दीर्घ आयु तथा धर्मोपदेशकी प्राप्ति एवं उसका सुनना व ग्रहण करना; ये सब क्रमशः उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। फिर इन सबके प्राप्त हो जानेपर जो रत्नत्रयस्वरूप बोधि संसाररूप वृक्षके काटने में कुल्हाड़ी के समान होकर मोक्षरूप महल में प्रवेश कराती है, वह तो उसे बहुत ही कष्ट के साथ प्राप्त होती है ||८०-८१॥
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अन्य मतमें जो उत्तम कथन दिखता है वह जिनदेवका ही कथन ( उपदेश ) जानना चाहिए । उदाहरणस्वरूप मोती जो अन्य स्थानमें देखे जाते हैं वे सब समुद्र में ही उत्पन्न होते हैं । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मोती एकमात्र समुद्र में ही उत्पन्न होकर अन्य स्थानोंमें पहुँचा करते हैं उसी प्रकार वस्तुरूपका जो यथार्थ कथन अन्य विविध मतों में भी कचित् देखा जाता है वह जैन मत में प्रादुर्भूत होकर वहाँ पहुँचा हुआ जानना चाहिए ॥ ८२ ॥ जिनेन्द्र के वचनको - जिनागमको — छोड़कर अन्य किसीका भी उपदेश पापके नष्ट करने में समर्थ नहीं है । ठीक भी है-रात्रिके दुर्भेद सघन अन्धकारको एकमात्र सूर्य ही नष्ट कर सकता है, अन्य कोई भी उसके नष्ट करने में समर्थ नहीं है ॥ ८३ ॥
सर्वश्रेष्ठ जो जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट आदिभूत धर्म है, अन्य धर्म उसको इस प्रकार से नष्ट करनेवाले हैं जिस प्रकार कि पतंगे - टिड्डियों आदि के दल - खेतों में खड़ी हुई फसलको नष्ट किया करते हैं || ८४ ॥
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७९) क ड इ समस्ता लब्धयो; इ शरीरिणाम् । ८० ) इमरोगिताम् ; ड देशनाश्रवणे । ८१) प्रवेशकाम् । ८३) व भास्करेणेव; इ दुर्भेद्यम् । ८४) अ जिनेन्द्रस्य ।
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