Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ [१९] अथो जिनमतिर्योगी मनोवेगमभाषत । सोऽयं पवनवेगस्ते मित्रं भद्र मनःप्रियम् ॥१ यस्यारोपयितुं धर्म संसारार्णवतारकम् । यस्त्वया केवली पृष्टो विधाय परमादरम् ॥२ मनोवेगस्ततो ऽवादोन्मस्तकस्थकरद्वयः। एवमेतदसौ साधो प्राप्तो वतजिघृक्षया ॥३ मयेत्वा पाटलीपुत्रं दृष्टान्तविविधैरयम् । सम्यक्त्वं लम्भितः साधो मुक्तिसमप्रवेशकम् ॥४ यथायं वान्तमिथ्यात्वो व्रताभरणभूषितः । इदानीं जायते भव्यस्तथा साधो विधीयताम् ॥५ ततः साधुरभाषिष्ट देवात्मगुरुसाक्षिकम् । सम्यक्त्वपूर्वकं भद्र गृहाण श्रावकव्रतम् ॥६ पश्चात् वे जिनमति मुनि मनोवेगसे बोले कि हे भद्र ! यह तुम्हारा वही प्यारा मित्र पवनवेग है कि जिसे तुमने संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाले धर्म में स्थिर करनेके लिए विनयपूर्वक केवली भगवानसे पूछा था ? ॥१-२॥ इसपर अपने दोनों हाथोंको मस्तकपर रखकर उन्हें नमस्कार करते हुए-मनोवेग बोला कि हे मुने ! ऐसा ही है । अब वह व्रतग्रहणकी इच्छासे यहाँ आया है ॥३॥ हे ऋषे ! मैंने पाटलीपुत्र में जाकर अनेक प्रकारके दृष्टान्तों द्वारा इसे मोक्षरूप महलमें प्रविष्ट करानेवाले सम्यग्दर्शनको ग्रहण करा दिया है ॥४॥ मिथ्यात्वरूप विषका वमन कर देनेवाला यह भव्य पवनवेग अब जिस प्रकारसे व्रतरूप आभूषणोंसे विभूषित हो सके, हे यतिवर ! वैसा आप प्रयत्न करें ।।५।। इस प्रकार मनोवेगके निवेदन करनेपर मुनिराज बोले कि हे भद्र ! तुम देव व अपने गुरुकी (अथवा आत्मा, गुरु या आत्मारूप गुरुकी) साक्षीमें सम्यग्दर्शनके साथ श्रावकके व्रतको ग्रहण करो ॥६॥ ४) इ लम्भितम् । ५) क ध्वस्त for वान्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409