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अथो जिनमतिर्योगी मनोवेगमभाषत । सोऽयं पवनवेगस्ते मित्रं भद्र मनःप्रियम् ॥१ यस्यारोपयितुं धर्म संसारार्णवतारकम् । यस्त्वया केवली पृष्टो विधाय परमादरम् ॥२ मनोवेगस्ततो ऽवादोन्मस्तकस्थकरद्वयः। एवमेतदसौ साधो प्राप्तो वतजिघृक्षया ॥३ मयेत्वा पाटलीपुत्रं दृष्टान्तविविधैरयम् । सम्यक्त्वं लम्भितः साधो मुक्तिसमप्रवेशकम् ॥४ यथायं वान्तमिथ्यात्वो व्रताभरणभूषितः । इदानीं जायते भव्यस्तथा साधो विधीयताम् ॥५ ततः साधुरभाषिष्ट देवात्मगुरुसाक्षिकम् । सम्यक्त्वपूर्वकं भद्र गृहाण श्रावकव्रतम् ॥६
पश्चात् वे जिनमति मुनि मनोवेगसे बोले कि हे भद्र ! यह तुम्हारा वही प्यारा मित्र पवनवेग है कि जिसे तुमने संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाले धर्म में स्थिर करनेके लिए विनयपूर्वक केवली भगवानसे पूछा था ? ॥१-२॥
इसपर अपने दोनों हाथोंको मस्तकपर रखकर उन्हें नमस्कार करते हुए-मनोवेग बोला कि हे मुने ! ऐसा ही है । अब वह व्रतग्रहणकी इच्छासे यहाँ आया है ॥३॥
हे ऋषे ! मैंने पाटलीपुत्र में जाकर अनेक प्रकारके दृष्टान्तों द्वारा इसे मोक्षरूप महलमें प्रविष्ट करानेवाले सम्यग्दर्शनको ग्रहण करा दिया है ॥४॥
मिथ्यात्वरूप विषका वमन कर देनेवाला यह भव्य पवनवेग अब जिस प्रकारसे व्रतरूप आभूषणोंसे विभूषित हो सके, हे यतिवर ! वैसा आप प्रयत्न करें ।।५।।
इस प्रकार मनोवेगके निवेदन करनेपर मुनिराज बोले कि हे भद्र ! तुम देव व अपने गुरुकी (अथवा आत्मा, गुरु या आत्मारूप गुरुकी) साक्षीमें सम्यग्दर्शनके साथ श्रावकके व्रतको ग्रहण करो ॥६॥
४) इ लम्भितम् । ५) क ध्वस्त for वान्त ।
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