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धर्मपरीक्षा-१८ प्रदयं वाक्यं जिननाथभाषितं न वारणां' चेदकरिष्यथा मम । तदाभ्रमिष्यं भवकानने चिरं दुरापपारे बहुदुःखपादपे ॥११ त्रिमोहमिथ्यात्वतमोविमोहितो गतो दुरन्तां परवाक्यशर्वरोम् । विबोधितो मोहतमोपहारिभिजिनार्कवाक्यांशुभिरुज्ज्वलैस्त्वया ॥९२ विहाय मागं जिननाथदेशितं निराकुलं सिद्धिपुरप्रवेशकम् । चिराय लग्नो ऽध्वनि दुष्टशिते महाभयश्वभ्रनिवासयायिनि ॥९३ गृहप्रियापुत्रपदातिबान्धवाः पुराकरग्रामनरेन्द्रसंपदः । भवन्ति जीवस्य पदे पदे परं' बुधाचिता तत्वरुचिर्न निर्मला ।।९४ विदूषितो येने समस्तमस्तधीः प्रदश्यमानं विपरीतमीक्षते। निरासि मिथ्यात्वमिदं मम त्वया प्रदाय सम्यक्त्वमलभ्यमुज्ज्वलम् ॥९५
९१) १. वर्जनम् । ९२) १. देवगुरुशास्त्र । २. प्रतिबोधितः। ९४) १. पण। ९५) १. मिथ्यात्वेन । २. पदार्थम् । ३. अनाशि, अस्फेटि । अन्धकारसे परिपूर्ण कुएँ में गिरनेसे बचाया है; अतएव तुम ही मेरे यथार्थ बन्धु-हितैषी मित्र-हो, तुम ही पिता हो तथा तुम ही मेरे कल्याणके करनेवाले गुरु हो ॥१०॥
यदि तुमने जिनेन्द्रके द्वारा कहे गये वाक्यको-उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वकोदिखलाकर न रोका होता तो मुझे बहुत प्रकारके दुःखोंरूप वृक्षोंसे परिपूर्ण अपरिमित संसाररूप बनमें दीर्घ काल तक परिभ्रमण करना पड़ता ॥९१॥
मैं तीन मूढ़तास्वरूप मिथ्यात्वरूप अन्धकारसे विमूढ़ होकर दुर्विनाश दूसरोंके उपदेशरूप रात्रिको प्राप्त हुआ था। परन्तु तुमने उस मूढ़तास्वरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले जिनदेवरूप सूर्यके वाक्यरूप उज्ज्वल किरणसमूहके द्वारा मुझे प्रबुद्ध कर दिया है-मेरी वह दिशाभूल नष्ट कर दी है ।।१२।।
जो जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट मोक्षका मार्ग आकुलतासे रहित होकर मुक्तिरूप नगरीके भीतर प्रवेश करानेवाला है उसको छोड़कर मैं दीर्घ कालसे दुष्ट मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा प्रदर्शित ऐसे महाभयके उत्पादक व नरकमें निवासके कारणभूत कुमार्गमें लग रहा था।।१३।।
प्राणीके लिए घर, वल्लभा, पुत्र, पादचारी सैनिक, बन्धुजन तथा नगर, सुवर्णरत्नादिकी खाने, गाँव एवं राजाकी सम्पत्ति-राज्यवैभव; ये सब पग-पगपर प्राप्त हुआ करते हैं। परन्तु विद्वानोंके द्वारा पूजित वह निर्मल तत्त्व-श्रद्धान-सम्यग्दर्शन-उसे सुलभतासे नहीं प्राप्त होता है-वह अतिशय दुर्लभ है ।।१४।।
जिस मिथ्यात्वसे दूषित प्राणी नष्टबुद्धि होकर हितैषी जनके द्वारा दिखलाये गये समस्त कल्याणके मार्गको विपरीत-अकल्याणकर-ही देखा करता है उस मिथ्यात्वको तुमने मुझे दुर्लभ निमल सम्यग्दर्शन देकर नष्ट कर दिया है ।।९५॥ ९१) ड वारणम्; इ भ्रमिष्ये । ९२) क ड शर्वरी....विमोहितो मोह । ९३) इ महाभये; अ निवासदायिनि । ९५) क प्रादायि ।
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