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अमितगतिविरचिता परकीयमिमं प्राप्तौ देशमाशाविमोहितो। कथं मार्गमजानन्तौ यावो गेहमसंबलौ ॥८३ वरं कुलागतं कुर्वस्तत्तपो बुद्धभाषितम् । लोकद्वयसुखं सारं यतो' नित्यं लभावहे ।।८४ रक्तानि सन्ति वस्त्राणि मुण्डयावः परं शिरः। आवां किमु करिष्यावो गेहेनानर्थकारिणा ॥८५ आवाभ्यामित्थमालोच्य गृहीतं व्रतमात्मना। स्वयमेव प्रवर्तन्ते पण्डिता धर्मकर्मणि ॥८६ भ्रमन्तौ धरणीमावां नगराकरमण्डिताम् । भवदीयमिदं स्थानमागमाव द्विजाकुलम् ।।८७ शृगालस्तूपकोत्क्षेपं नयनाश्चयंमीदृशम् । दृष्टं प्रत्यक्षमावास्यामिदं वो विनिवेदितम् ॥८८
८४) १. तपसः । ८७) १. समूह । ८८) १. क इत्थं कथानकं युष्माकं कथितम् । घरके मार्गको नहीं जानते हैं तथा मार्गमें खाने के योग्य भोजन भी पासमें नहीं है। तब ऐसी अवस्था में घरको कैसे जा सकते हैं ? वहाँ जाना सम्भव नहीं है। अच्छा तो अब यही होगा कि बुद्ध भगवानके द्वारा उपदिष्ट जो तप कुलपरम्परासे चला आ रहा है, उसीका हम आचरण करें। कारण कि उससे हमें दोनों लोकों सम्बन्धी श्रेष्ठ व नित्य सुखकी प्राप्ति हो सकती है। वस्त्र तो अपने पास लाल हैं ही, बस अब शिरको और मुड़ा लेते हैं। जो घर अनेक अनर्थोंका कारण है उस घरसे हम दोनोंका क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? कुछ भी नहीं ।।८२-८५।। ____ इस प्रकारका विचार करके हम दोनोंने अपने-आप ही व्रतको ग्रहण कर लिया है। और वह ठीक भी है, क्योंकि, विद्वान् जन स्वयं ही धर्मकार्यमें प्रवृत्त हुआ करते हैं ।।८६।। ___ हम दोनों नगरों और खानोंसे (अथवा नगरसमूहसे) सुशोभित इस पृथिवीपर परिभ्रमण करते हुए ब्राह्मण जनसे परिपूर्ण इस आपके स्थानको आ रहे हैं ।।८७।।
गीदड़ोंके द्वारा टीलेको ऊपर उठाकर ले भागना, यह नेत्रोंको आश्चर्यजनक है; परन्तु इस प्रकारके आश्चर्यको हम दोनोंने प्रत्यक्ष देखा है व उसके सम्बन्धमें आपसे निवेदन किया है ॥८॥
८३) ब परकीयमिमी। ८४) ड लभ्यं for नित्यम् । ८५) ब करिष्यामो। ८६) ब °मालोक्य; अ क ड इमात्मनः । ८७) ड नगराकार'; अमागच्छाव । ८८) क°मित्थं वो।
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