________________
२५८
अमितगतिविरचिता युष्माकमीशे शास्त्रे देवधर्मावपोदशौ । कारणे कश्मले कार्य निर्मलं जायते कुतः ॥७ नास्माकं युज्यते मध्ये मिथ्याज्ञानवृतात्मनाम् । ईदृशानामवस्थातुमुक्त्वासौ निर्ययौ ततः ॥८ मुक्त्वा रक्तपटाकारं मित्रमूचे मनोजवः। सर्वासंभावनीयार्थ परशास्त्रं श्रुतं त्वया ॥९ एतदुक्तमनुष्ठानं कुर्वाणो नाश्नुते फलम् । सिकतापीलने तैलं कदा केनोपलभ्यते ॥१० वानरै राक्षसा हन्तुं शक्यन्ते न कथंचन । क महाष्टगुणा देवाः क तियंञ्चो विचेतसः ॥११ उत्क्षिप्यन्ते कथं शैला गरीयांसः प्लवङ्गमैः ।
कथं तिष्ठन्त्यकूपारे ऽगाधनिर्मुक्तपाथसि ॥१२ ९) १. मनोवेगः। १२) १. वानरैः । २. पाररहितसमुद्रे ।
आपके शास्त्रके इस प्रकार-दोषपूर्ण होनेपर देव और धर्म भी उसी प्रकारकेदोषपूर्ण होने चाहिए। इसका हेतु यह है कि कारणके सदोष होनेपर कार्य निर्मल कहाँसे हो सकता है ? अर्थात् कारणके मलिन होनेपर कार्य भी मलिन होगा ही ॥७॥
जिनकी आत्मा मिथ्याज्ञानसे आच्छादित हो रही है इस प्रकारके विद्वानों के बीच में हमारा स्थित रहना उचित नहीं है, ऐसा कहकर वह मनोवेग वहाँसे चल दिया ।।८।।
तत्पश्चात् रक्त वस्त्रधारी भिक्षुके वेषको छोड़कर वह मनोवेग पवनवेगसे बोला कि हे मित्र ! तुमने सब ही असम्भावनीय अर्थोंसे-असंगत वर्णनोंसे परिपूर्ण दूसरोंके शास्त्रको सुन लिया है। उसमें उपदिष्ट अनुष्ठानको करनेवाला-तदनुसार क्रियाकाण्डमें प्रवृत्त होनेवाला-प्राणी उत्तम फलको-समीचीन सुखको-नहीं प्राप्त कर सकता है। कारण कि बालुके पीलनेसे कभी किसीको तेल नहीं प्राप्त हो सकता है ।।९-१०॥
जैसा कि उक्त रामायणादिमें कहा गया है, बन्दर किसी प्रकारसे भी राक्षसोंको नहीं मार सकते हैं। कारण कि अणिमा-महिमा आदि आठ महागुणोंके धारक वे राक्षसउस जातिके व्यन्तर देव-तो कहाँ और वे विवेकहीन पशु कहाँ ? अर्थात् उक्त राक्षस देवोंके साथ उन तुच्छ बन्दरोंकी कुछ भी गणना नहीं की जा सकती है ॥११॥
___उतने भारी पर्वतोंको भला वे बन्दर कैसे उठा सकते हैं तथा वे पर्वत भी अगाध जलसे परिपूर्ण समुद्रके मध्यमें कैसे अवस्थित रह सकते हैं-उनका पुलके रूपमें जलके ऊपर रहना सम्भव नहीं है ॥१२॥ ८) अ बस्थातुमित्युक्त्वा । ९) ड यार्थपरशास्त्रम् । १०) अ शक्तायाः पीडने तैलम्; क इ वद for कदा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -